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अध्याय ६
चातुर्मास्य आषाढ़ शुक्ल एकादशी या द्वादशी या पूर्णिमा को या उस दिन जब सूर्य कर्क राशि में प्रविष्ट होता है, चातुर्मास्य व्रत का आरम्भ किया जाता है। यह चाहे जब आरम्भ हो, कार्तिक शुक्ल द्वादशी को समाप्त हो जाता है। व्रती को उस दिन उपवास एवं देव-पूजा करके ऐसा कहना चाहिए---'हे देव, मैंने यह व्रत आपकी उपस्थिति में लिया है, यदि आप मेरे प्रति अनुग्रह करें तो यह निर्विघ्न समाप्त हो जाय; व्रत ग्रहण के उपरान्त बीच ही में मैं मर जाऊँ तो आपके अनुग्रह से यह पूर्णरूपेण समाप्त माना जाय' (गरुड़० १।१२१।२-३)। जब गुरु (बृहस्पति) या शुक्र अस्त हो जायँ तब भी इसका आरम्भ किया जा सकता है। चार मासों तक व्रती को कुछ खाद्य पदार्थ त्याग देने होते हैं, यथा श्रावण में शाक, भाद्रपद में दही, आश्विन में दूध एवं कार्तिक में दालें। कुछ लोगों के मत से कुछ या सभी प्रकार के शाक त्यागने होते हैं। व्रती को शय्या-शयन, मांस, मधु आदि मी त्यांगने पड़ते हैं। व्रत समाप्त होने पर व्रती ब्राह्मणों को निमन्त्रित कर भोजन कराता है और दक्षिणा देता है और प्रार्थना करता है--हे प्रभु, आपको प्रसन्न करने के लिए मेरे द्वारा यह व्रत लिया गया था; हे जनार्दन, जो भी दोष हो, आपकी कृपा से यह पूर्ण हो।' यह व्रत आज भी, विशेषतः नारियों द्वारा सम्पादित होता है। चातुर्मास्य व्रत में कुछ वस्तुओं के त्याग के फलों के विषय में कृत्यतत्त्व (पृ० ४३५), व्रतार्क, व्रत प्रकाश एवं अन्य मध्यकालिक निबन्धों में मत्स्य० एवं भविष्य० (११६-९) के लम्बे-लम्बे उद्धरण पाये जाते हैं। कुछ वचन निम्न हैं--'गुड़-त्याग से मधुर स्वर प्राप्त होता है, तैल-त्याग से अंग सुन्दर हो जाते हैं, घृत-त्याग से सौन्दर्य मिलता है, शाक-त्याग से बुद्धि एवं बहुपुत्र प्राप्त होते हैं, शाक एवं पत्रों के त्याग से पक्वान्न की प्राप्ति होती है तथा दधि-दुग्ध-त्याग से व्यक्ति गौओं के लोक में जाता है।
१. चातुर्मासिकवतग्रहणे कालचतुष्टम् । आषाढी पौर्णमासी शुक्ला एकादशी द्वादशी कर्कटसंकान्तिश्च । का० वि० (पृ० ३३२); हे० (बत, भाग २, पृ० ८०६); ति० त० (पृ० १११); गरुड़ (११२११) ने एकादशी एवं आषाढी पौर्णमासी को चातुर्मास्य व्रत कहा है।
२. चतुरो वार्षिकान् मासान् देवस्योत्थापनावधि। मधुस्वरो भवेन्नित्यं नरो गुडविवर्जनात्। तैलस्य वर्जनादेव सुन्दरांगवाप्नु प्रजायते। कटुतेलपरित्यागात् शत्रुनाशमनानुयात् । ताम्बलवर्जनाद' भोगी रक्तकण्ठः प्रजायते। घृतत्यागात्सुलावण्यं सर्व स्निग्धं वपुर्भवेत् । फलत्यागाच मतिमान बहुपुत्रः प्रजायते । शाकपत्राशनत्यागात् पक्वान्नादो नरो भवेत्।... दधिदुग्धपरित्यागात्गोलोकं लभते नरः॥ वतप्रकाश, कृत्यतत्त्व (पृ० ४३५)।
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