________________
६१
ऋषिपञ्चमी, अनन्तचतुर्दशी व्रत वस्त्रों, यज्ञोपवीतों, अधिक मात्रा में नैवेद्य से पूजा करनी चाहिए और मन्त्रों के साथ अर्घ्यं चढ़ाना चाहिए ।" इस व्रत में केवल शाकों का प्रयोग होता है और ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। इसके करने से सभी पापों एवं प्रकार के दुःखों से छुटकारा मिलता है' तथा सौभाग्य की वृद्धि होती है । जब नारी इसे सम्पादित करती है तो उसे आनन्द, शरीर-सौन्दर्य, पुत्रों एवं पौत्रों की प्राप्ति होती है।
पश्चात्कालीन निबन्ध व्रतार्क, व्रतराज ( पृ० २०० - २०६) आदि ने भविष्योत्तर ० से उद्धृत कर बहुत-सी बात लिखी हैं, जहाँ कृष्ण द्वारा युधिष्ठिर को सुनायी गयी एक कथा भी है। जब इन्द्र ने त्वष्टा के पुत्र वृत्र का हनन किया तो उन्हें ब्रह्महत्या का अपराध लगा । उस पाप को चार स्थानों में बाँटा गया, यथा अग्नि (धूम से मिश्रित प्रथम ज्वाला), नदियों (वर्षाकाल के पंकिल जल), पर्वतों (जहाँ गोंद वाले वृक्ष उगते हैं) में तथा स्त्रियों (रजस्वला) में । अतः मासिक धर्म के समय लगे पाप से छुटकारा पाने के लिए यह व्रत स्त्रियों द्वारा किया जाना चाहिए ।
इसका संकल्प यों है - अहं ज्ञानतोऽज्ञानतो वा रजस्वलावस्यायां कृतसंपर्कजनितदोषपरिहारार्थमृषिपञ्चमीव्रतं करिष्ये ।' ऐसा संकल्प करके अरुन्धती के साथ सप्तर्षियों की पूजा करनी चाहिए ( व्रतार्क ) । व्रतराज ( पृ० २०१) के मत से इस व्रत में केवल शाकों या नीवारों या साँवा (श्यामाक) या कन्द-मूलों या फलों का सेवन करना चाहिए तथा हल से उत्पन्न किया हुआ अन्न नहीं खाना चाहिए। आजकल जब पुरुष भी इस व्रत को करते हैं तो वैदिक मन्त्रों का पाठ होता है, यथा कश्यप ऋषि के लिए ऋग्वेद (९/१४/२), अत्रि के लिए ऋ० (५/७८२४), भरद्वाज के लिए ऋ० (६।२५।९), विश्वामित्र के लिए ऋ० (१०।१६७१४), गोतम के लिए ऋ० (१२७८२१), जमदग्नि के लिए ऋ० ( ३।६२।१८ ) एवं वसिष्ठ के लिए ऋ० ( ७ ३१।११) । अरुन्धती के लिए मी मन्त्र है-"अत्रेर्यथानसूया स्याद् वसिष्ठस्याप्यरुन्धती । कौशिकस्य यथा सती तथा त्वमपि भर्तरि ॥।' यह अरुन्धती के आवाहन के लिए है। यह व्रत सात वर्षों का होता है। सात घड़े होते हैं और सात ब्राह्मण निमन्त्रित रहते हैं, जिन्हें अन्त में ऋषियों की सातों प्रतिमाएँ (सोने या चाँदी की) दान में दे दी जाती हैं। यदि सभी प्रतिमाएँ एक ही कलश में रखी गयी हों तो वह कलश एक ब्राह्मण को तथा अन्यों को कलशों के साथ वस्त्र एवं दक्षिणा दी जाती है।
यदि पंचमी तिथि चतुर्थी एवं षष्ठी से संयुक्त हो तो ऋषिपंचमी व्रत चतुर्थी से संयुक्त पंचमी को किया जाता है न कि षष्ठीयुक्त पंचमी को । किन्तु इस विषय में मतभेद है। देखिए का० नि० ( पृ० १८६), हेमाद्रि, माधव, निर्णय आदि ।
५. अर्घ्यमन्त्रः । कश्यपोत्रिर्भरद्वाजो विश्वामित्रोथ गौतमः । जमदग्निर्वसिष्ठश्च सप्तैते ऋषयः स्मृताः ॥ गृहृन्त्वर्घ्यं मया दत्तं तुष्टा भवत में सदा ॥ हे० ( व्रत, भाग १, पृ० ५७१); स्मृति क० ( पृ० २१७ ); व्रतराज ( पृ० २०० ) । वराहमिहिर की बृहत्संहिता ( १३।५-६ ) में सप्तर्षियों के नाम आये हैं (जो पूर्व से आरम्भ किये गये हैं) यथा मरीचि, वसिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, ऋतु; १३।६ में आया है कि साध्वी अरुन्धती वसिष्ठ के पास हैं।
६ तीन दुःख ये हैं--आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक । 'आध्यात्मिकादि मैत्रेय ज्ञात्वा तापत्रयं बुधः । उत्पन्नज्ञानवैराग्यः प्राप्नोत्यात्यन्तिकं लयम् ॥' (विष्णु० ६।५।१ ) । आध्यात्मिक दुःख शारीरिक ( रोग आदि) एवं मानसिक ( चिन्ता, ईर्ष्या आदि) हैं; आधिभौतिक दुःख पशुओं, मनुष्यों, पिशाचों आदि से उत्पन्न होते हैं; आधिदैविक दुःखों की उत्पत्ति तुषारपात, पवन, वर्षा आदि से होती है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org