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ग्रहण - समय के कृत्य
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ग्रहण समाप्त हो जाय तो स्नान करके खाना चाहिए; यदि ग्रहण के पूर्व ही सूर्य या चन्द्र अस्त हो जायँ तो स्नान करना चाहिए और सूर्योदय देखने के उपरान्त ही पुनः खाना चाहिए।' यही बात कुछ ग्रन्थों में उद्धृत दो श्लोकों में विस्तारित है -'सूर्य ग्रहण के पूर्व नहीं खाना चाहिए और चन्द्र ग्रहण के दिन की सन्ध्या में भी नहीं खाना चाहिए; ग्रहण काल में भी नहीं खाना चाहिए; किन्तु जब सूर्य एवं चन्द्र ग्रहण से मुक्त हो जायँ तो स्नानोपरान्त खाया जा सकता है; जब चन्द्र मुक्त हो जाय तो उसके उपरान्त रात्रि में भी खाया जा सकता है, किन्तु यह तभी किया जा सकता है जब महानिशा न हो; जब ग्रहण से मुक्त होने के पूर्व ही सूर्य या चन्द्र अस्त हो जायँ तो दूसरे दिन उनके उदय को देखकर ही स्नान करके खाना चाहिए।'
यह भी कहा गया है कि न केवल ग्रहण के काल में ही खाना नहीं चाहिए, प्रत्युत चन्द्रग्रहण में आरम्भ होने से ३ प्रहर ( ९ घण्टे या २२३ घटिकाएँ) पूर्व भी भोजन नहीं करना चाहिए और सूर्यग्रहण के आरम्भ के चार प्रहर पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए; किन्तु यह नियम बच्चों, वृद्धों एवं स्त्रियों के लिए नहीं है । यह तीन या चार प्रहरों
अवधि (ग्रहण के पूर्व से ) प्राचीन काल से अब तक 'वेध' नाम से विख्यात है । कृत्यतत्त्व ( पृ० ४३४ ) ने भोजन विषयक सभी उपर्युक्त नियम एक स्थान पर एकत्र कर रखे हैं । आज ये नियम भली भाँति नहीं सम्पादित होते, किन्तु आज से लगभग ८० वर्ष पूर्व ऐसी स्थिति नहीं थी ।
ग्रहणों से उत्पन्न बहुत से फलों की चर्चा हुई है। दो-एक उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं। विष्णुधर्मोत्तर ( १/८५/५६ ) में आया है - 'यदि एक ही मास में पहले चन्द्र और उपरान्त सूर्य के ग्रहण हों तो इस घटना के फलस्वरूप ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों में झगड़े या विरोध उत्पन्न होंगे, किन्तु यदि इसका उलटा हो तो समृद्धि की वृद्धि होती है ।" उसी पुराण में यह भी आया है- 'उस नक्षत्र में, जिसमें सूर्य या चन्द्र का ग्रहण होता है, उत्पन्न व्यक्ति दु:ख पाते हैं, किन्तु इन दुःखों का मार्जन शान्ति कृत्यों से हो सकता है।' इस विषय में देखिए हेमाद्रि ( काल०, पृ० ३९२-३९३ ) । अत्रि की उक्ति है- 'यदि किसी व्यक्ति के जन्म-दिन के नक्षत्र में चन्द्र एवं सूर्य का ग्रहण हो तो उस व्यक्ति को व्याधि, प्रवास, मृत्यु एवं राजा से भय होता है ।""
वि० ( पृ० ५३७ ) ; हे० ( काल, पृ० ३८० ) ; कृ० र० ( पृ० ६२६-६२७ ) ; व० क्रि० कौ० ( पृ० १०४ ) । इनमें afare श्लोक विभिन्न लोगों द्वारा विभिन्न लोगों के कहे गये हैं।
९. वृद्धगौतमः । सूर्यग्रहे तु नाश्नीयात् पूर्वं यामचतुष्टयम् । चन्द्रग्रहे तु यामांस्त्रीन् बालवृद्धातुरैविना ॥ हे०, काल, पृ० ३८१; स्मृतिकौ०, पृ० ७६ ।
१०. एकस्मिन्यदि मासे स्याद् ग्रहणं चन्द्रसूर्ययोः । ब्रह्मक्षत्रविरोधाय विपरीते विवृद्धये ॥ विष्णुधर्मोत्तर (१८५/५६) । 'यनक्षत्रगतौ राहुर्व्रसते चन्द्रभास्करौ । तज्जातानां भवेत्पीडा ये नराः शान्तिर्वाजताः ॥' वही, १।८५।३३-३४) ।
११. आह चात्रिः । यस्य स्वजन्मनक्षत्रे ग्रस्येते शशिभास्करौ । व्याधिं प्रवासं मृत्युं च राज्ञश्चैव महद्भयम् ॥ का० वि० (१०५४३ ) ।
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