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धर्मशास्त्र का इतिहास
३८० का०नि०, पृ० ३३३ आदि में उद्धृत) में घोषित है-'जो व्यक्ति संक्रान्ति के पवित्र दिन पर स्नान नहीं करता वह सात जन्मों तक रोगी एवं निर्धन रहेगा; संक्रान्ति पर जो भी देवों को हव्य एवं पितरों को कव्य दिया जाता है वह सूर्य द्वार भविष्य के जन्मों में लौटा दिया जाता है।'
प्राचीन ग्रन्थों में ऐसा लिखित है कि केवल सूर्य का किसी राशि में प्रवेश मात्र ही पुनीतता का द्योतक नहीं है, प्रत्युत सभी ग्रहों का अन्य नक्षत्र या राशि में प्रवेश पुण्यकाल माना जाता है (का० नि०, पृ० ३४५)। हे० (काल, पृ० ४३७) एवं का० नि० (पृ० ३४५) ने क्रम से जैमिनि एवं ज्योतिःशास्त्र से उद्धरण देकर सूर्य एवं ग्रहों की संक्रान्ति का पुण्यकाल को घोषित किया है-'सूर्य के विषय में संक्रान्ति के पूर्व या पश्चात् १६ घटिकाओं का समय पुण्य समय है; चन्द्र के विषय में दोनों ओर एक घटी १३ पल पुण्यकाल है; मंगल के लिए ४ घटिकाएँ एवं एक पल; बुध के लिए ३ घटिकाएँ एवं १४ पल ; बृहस्पति के लिए चार घटिकाएँ एवं ३७ पल ; शुक्र के लिए ४ घटिकाएँ एवं एक पल तथा शनि के लिए ८२ घटिकाएँ एवं ७ पल।'
ग्रहों की भी संक्रातियाँ होती हैं, किन्तु पश्चात्कालीन लेखकों के अनुसार 'संक्रान्ति' शब्द केवल रवि-संक्रान्ति के नाम से ही द्योतित है, जैसा कि स्मृतिकौस्तुभ (पृ० ५३१) में उल्लिखित है।
__ वर्ष भर की १२ संक्रान्तियाँ चार श्रेणियों में विभक्त हैं--(१) दो अयन-संक्रान्तियाँ (मकर-संक्रान्ति, जब उत्तरायण का आरम्भ होता है एवं कर्कट-संक्रान्ति, जब दक्षिणायन का आरम्भ होता है), (२) दो विषुव-संक्रान्तियाँ (अर्थात् मेष एवं तुला संक्रान्तियाँ, जब रात्रि एवं दिन बराबर होते हैं), (३) वे चार संक्रान्तियाँ, जिन्हें षडशीतिमुख (अर्थात् मिथुन, कन्या, धनु एवं मीन) कहा जाता है तथा (४) विष्णुपदी या विष्णुपद (अर्थात् वृषभ, सिंह, वृश्चिक एवं कुम्म) नामक संक्रान्तियाँ।'
आगे चलकर संक्रान्ति का देवीकरण हो गया और वह साक्षात् दुर्गा कही जाने लगी। देवीपुराण (हे०, काल, पृ० ४१८-४१९; कृ० र०, पृ० ६१४-१६५ एवं कृत्यकल्प, पृ० ३६१-३६१) में आया है कि देवी वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, दिन आदि के क्रम से सूक्ष्म-सूक्ष्म विभाग' के कारण सर्वगत' विभु रूप वाली है। देवी पुण्य तवं पाप के विभागों के अनुसार फल देने वाली है। संक्रान्ति के काल में किये गये एक कृत्य से भी कोटि-कोटि फलों की प्राप्ति होती है। धर्म से आयु, राज्य, पुत्र, सुख आदि की वृद्धि होती है, अधर्म से व्याधि, शोक आदि बढ़ते हैं। विषुव (मेष एवं तुला) संक्रान्ति के समय जो दान या जप किया जाता है या अयन (मकर एवं कर्कट संक्रान्ति) में जो सम्पादित होता है, वह अक्षय होता है। यही बात विष्णुपद एवं षडशीति-मुख के विषय में भी है।
३. पञ्चसिद्धान्तिका (३।२३-२४, पृ० ९) ने परिभाषा की है--'मेषतुलादौ विषुवत् षडशीतिमुखं तुलादिभागेषु। षडशीतिमुखेषु रवेः पितृदिवसा येऽवशेषाः स्युः॥ षडशीतिमुखं कन्याचतुर्दशेऽष्टादशे च मिथुनस्य। मीनस्य द्वाविशे षड्विशे कार्मुकस्यांशे ॥' तुला आदिर्यस्याः सा तुलादिः कन्या। द्वादशव भवन्त्येषां द्विज नामानि मे शृणु। एकं विष्णुपदं नाम षडशीतिमुखं तथा॥ विषुवं च तृतीयं च अन्ये द्वे दक्षिणोत्तरे॥ कुम्भालिगोहरिषु विष्णुपदं वदन्ति स्त्रीचापमीनमिथुने षडशीतिवक्त्रम् । अर्कस्य सौम्यमयनं शशिधाम्नि याम्यमक्षे झषे विषुवति त्वजतौलिनोः स्यात् ॥ ब्रह्मवैवर्त (हे०, काल, पृ० ४०७)। कुछ शब्दों की व्याख्या आवश्यक है-अलि वृश्चिक, गो वृषभ, हरि सिंह, स्त्री कन्या, चाप धनुः, शशिधाम्नि शशिगृह कर्कटक, सौम्यायन उत्तरायण, याम्य दक्षिणायन (यम दक्षिण का अधिपति है), झष मकर, अज मेष, तौली (जो तराजू पकड़े रहता है) तुला।
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