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नरकचतुर्दशी लक्ष्मी-कुबेरपूजन, बलिराज्य तिथितत्त्व (पृ० १२४) एवं कृत्यतत्त्व (पृ० ४५०-५१) के अनुसार इस चतुर्दशी को चौदह प्रकार के शाक-पातों का सेवन करना चाहिए।
वर्षक्रियाकौमुदी, धर्मसिन्धु (पृ० १०४), पु० चि० (पृ० २५३), स० म० (पृ० ११७) आदि ग्रन्थों ने व्यवस्था दी है कि आश्विन कृष्णपक्ष की चतुर्दशी और अमावास्या की सन्ध्याओं को मनुष्यों को अपने हाथों में उल्काएँ (मशाल) लेकर अपने पितरों को दिखाना चाहिए और इस मन्त्र का पाठ करना चाहिए--'मेरे कुटुम्ब के वे पितर जिनका दाह-संस्कार हो चुका है, जिनका दाह-संस्कार नहीं हुआ है और जिनका दाह-संस्कार केवल प्रज्वलित अग्नि से (बिना धार्मिक कृत्य के) हुआ है, परम गति को प्राप्त हों। ऐसे पितर लोग, जो यमलोक से यहाँ महालया श्राद्ध पर आये हैं (भाद्रपद या आश्विन के कृष्णपक्ष में, पूर्णिमान्त गणना के अनुसार) उन्हें इन उल्काओं से मार्गदर्शन प्राप्त हो और वे (अपने लोकों को) पहुँच जायँ।'
मध्यकालिक निबन्धों ने आश्विन कृष्णपक्ष (अमान्त) की चतुर्दशी पर निम्न कृत्यों की व्यवस्था की है---अभ्यंग स्नान (तैल स्नान), यम तर्पण, नरक के लिए दीपदान, रात्रि में दीपदान, उल्कादान (हाथ में मशाल लेना), शिव-पूजा, महारात्रि-पूजा तथा केवल रात्रि में भोजन (नक्त) करना। अब केवल तीन (तैल स्नान, नरकदीपदान एवं रात्रिदीपदान) ही प्रचलित हैं। स्नान के उपरान्त लोग नये वस्त्र एवं आभूषण धारण करते हैं, मिठाइयाँ और रात्रि में भाँति-भाँति के व्यंजन भोजन करते हैं। नि० सि० (पृ० १९७), पु० चि० (पृ० २४१), ध० सि० (पृ० १०४) में तैल-स्नान (अभ्यंग-स्नान) एवं त्रयोदशी से युक्त चतुर्दशी पर लम्बा विवेचन उपस्थित किया गया है। हम उसे यहाँ नहीं लिखेंगे। कृत्यतत्त्व (पृ० ४५०) में नरकचतुर्दशी को भूतचतुर्दशी की संज्ञा दी हुई है।
आश्विन कृष्णपक्ष चतुर्दशी, अमावास्या एवं कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को प्रातःकाल तैल-स्नान (तेल लगाकर स्नान करना) व्यवस्थित किया गया है, क्योंकि इससे धन एवं ऐश्वर्य मिलता है।
यह अमावास्या महत्त्वपूर्ण दिन है। इसमें प्रातःकाल तैल-स्नान करके अलक्ष्मी (दुर्भाग्य एवं फटेहाली) को दूर करने के लिए लक्ष्मी-पूजा की जानी चाहिए। कुछ लोगों के मत से पीपल (अश्वत्थ), उदुम्बर, प्लक्ष, आम्र एवं वट की छाल को पानी में उबाल कर स्नान करना चाहिए और स्त्रियों द्वारा अपने सामने दीपदान कराना चाहिए। अन्य विवरणों के लिए देखिए भविष्योत्तर (अध्याय १४०, श्लोक १४-२९), हेमाद्रि (व्रत, भाग २, पृ० ३४८-३४९)। आजकल यह दिन वैश्यों एवं व्यापारियों द्वारा विशेष रूप से मनाया जाता है। वे अपने बही-खातों की पूजा करते हैं, अपने मित्रों, क्रेताओं एवं अन्य व्यापारियों को निमन्त्रित करते हैं और उनका ताम्बूल एवं मिठाइयों से सत्कार करते हैं। पुराने खाते बन्द किये जाते हैं और नये खोले जाते हैं। ऐसी अनुश्रुति है कि ब्रह्मा ने ब्राह्मणों को रक्षाबन्धन (श्रावण पूर्णिमा), क्षत्रियों को दशहरा (विजयदशमी), वैश्यों को दिवाली एवं शूद्रों को होलिका के उत्सव दिये हैं। लक्ष्मी-पूजा की रात्रि को सुखरात्रि कहते हैं। देखिए कृत्यतत्त्व (पृ० ४५२), व० क्रि० कौ०, ध०सि० (पृ० १०७)। इस अवसर पर लक्ष्मी-पूजा के साथ-साथ कुबेर की पूजा भी होती है, जिससे सुख मिले। इससे इसी रात्रि को सुखरात्रि भी कहते हैं।
भविष्योत्तर ० (१४०।१४-२९) में अमावास्याकृत्य वणित है जो संक्षेप में यों है--प्रातःकाल अभ्यंग-स्नान, देव-पितरों की पूजा, दही, दूध, घत से पार्वण-श्राद्ध, भाँति-भाँति के व्यंजनों से ब्राह्मण-भोजन; अपराह्य में राजा की अपनी राजधानी में ऐसी घोषणा करानी चाहिए कि आज बलि का आधिपत्य है, हे लोगो, आनन्द मनाओ। लोगों को अपने-अपने घरों में नत्य एवं संगीत का आयोजन करना चाहिए, एक-दूसरे को ताम्बूल देना चाहिए, कुंकुम लगाना चाहिए, रेशमी वस्त्र धारण करना चाहिए, सोने एवं रत्नों के आभूषण धारण करने चाहिए। नारियों को सज-धजकर गोल बनाकर चलना चाहिए, सुन्दर कुमारियों को इधर-उधर चावल बिखेरने चाहिए और
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