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धर्मशास्त्र का इतिहास है। जैन परम्पराओं में कृष्ण २२ वें तीर्थकर नेमिनाथ के समकालीन माने गये हैं और जैनों के प्राक्-इतिहास के ६३ महापुरुषों के विवरण में लगभग एक-तिहाई भाग कृष्ण के सम्बन्ध में ही है। महाभारत में कृष्ण-जीवन भरपूर है। महाभारत में वे यादव राजकुमार कहे गये हैं, वे पाण्डवों के सबसे गहरे मित्र थे, बड़े मारी योद्धा थे, राजनीतिज्ञ एवं दार्शनिक थे। कतिपय स्थानों पर वे परमात्मा माने गये हैं और स्वयं विष्णु कहे गये हैं (शान्ति, ४७।२८; द्रोण, १४६।६७-६८; कर्ण, ८७।७४; वन, ४९।२०; भीष्म, २१११३-१५)। युधिष्ठिर (द्रोण, १४९। १६-३३), द्रौपदी (वन, २६३।८-१६) एवं भीष्म (अनुशासन, १६७।३७-४५) ने कृष्ण के विषय में प्रशंसा-गान किये हैं। हरिवंश,विष्णु, वायु, भागवत एवं ब्रह्मवैवर्त पुराण में कृष्ण-लीलाओं का वर्णन है जो महाभारत में नहीं पाया जाता।
पाणिनि (४।३।९८) से प्रकट होता है कि इनके काल में कुछ लोग वासुदेवक एवं अर्जुनक भी थे, जिनका अर्थ है क्रम से वासुदेव एवं अर्जुन के भक्त। पतञ्जलि के महाभाष्य के वार्तिकों में कृष्ण-सम्बन्धी व्यक्तियों एवं घटनाओं की ओर संकेत है, यथा वातिक सं० ६ (पा० ३।१।२६) में कंस' तथा बलि के नाम ; वार्तिक सं० २ (पा० ३।१। १३८) में 'गोविन्द'; एवं पा० ३।२।२१ के वार्तिक में वासुदेव एवं कृष्ण। पतञ्जलि में 'सत्यभामा' को 'भामा' भी कहा गया है। 'वासुदेववर्म्यः', 'अक्रूरवर्ग्यः' (वार्तिक ११, पा० ४।२।१०४), 'ऋष्यन्धकवृष्णिकुरुभ्यश्च' (पा० ४।१।११४) में, उग्रसेन (को अन्धक कहा गया है) एवं वासुदेव तथा बलदेव (को वृष्णि कहा गया है) आदि शब्द आये हैं। अधिकांश विद्वानों ने पतञ्जलि को ई० पू० दूसरी शताब्दी का माना है। कृष्ण-कथाएँ इसके बहुत पहले की हैं। आदि० (११२५६) एवं सभा० (३३।१०-१२) में कृष्ण को वासुदेव एवं परमब्रह्म एवं विश्व का मूल कहा गया है। ई० पू० दूसरी या पहली शताब्दी के घोसुण्डी अभिलेख (एपि० इण्डि०, १६, पृ० २५-२७; ३१, पृ० १९८ एवं इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, ६१,पृ० २०३) में कृष्ण को 'भागवत एवं सर्वेश्वर' कहा गया है। यही बात नानाघाट अभिलेखों (ई० पू० २०० ई०) में भी है। बेसनगर के गरुडध्वज' अभिलेख में वासुदेव को 'देव-देव' कहा गया है। ये प्रमाण सिद्ध करते हैं कि ई० पू० ५०० के लगभग उत्तरी एवं मध्य भारत में वासुदेव की पूजा प्रचलित थी। अधिक प्रकाश के लिए देखिए श्री आर० जी० भण्डारकर कृत 'वैष्णविज्म, शैविज्म' आदि (पृ० १-४५), जहाँ वैष्णव सम्प्रदाय एवं इसकी प्राचीनता के विषय में विवेचन उपस्थित किया गया है। .
यह आश्चर्यजनक है कि कृष्णजन्माष्टमी पर लिखे गये मध्यकालिक ग्रन्थों ने भविष्य ०, भविष्योत्तर०, स्कन्द०, विष्णुधर्मोत्तर०, नारदीय एवं ब्रह्मवैवर्त पुराणों से उद्धरण तो लिये हैं किन्तु उन्होंने उस भागवत पुराण को अछूता छोड़ रखा है जो पश्चात्कालीन मध्य एवं वर्तमानकालीन वैष्णवों का 'वेद' माना जाता है। भागवत में कृष्ण-जन्म का विवरण संदिग्ध एवं साधारण है। वहाँ ऐसा आया है कि जन्म के समय काल सर्वगुणसम्पन्न एवं शोभन था, दिशाएँ स्वच्छ एवं गगन निर्मल एवं उडुगण युक्त था, वायु सुखस्पर्शी एवं गन्धवाही था और जब जनार्दन ने देवकी के गर्भ से जन्म लिया तो अर्धरात्रि थी तथा अन्धकार ने सबको ढंक लिया था।
४. अथ सर्वगुणोपेतः कालः परमशोभनः। यहावाजनजन्मर्फ शान्तर्वाग्रहतारकम् ॥ दिशः प्रसेदुर्गगनं निर्मलोडुगणोदयम्।...ववौ वायुः सुखस्पर्शः पुण्यगन्धवहः शुचिः।...निशीथे तम उद्भूते जायमाने जनार्दने। देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः॥ भागवत० १०॥३॥१-२, ४, ८। यहाँ 'अजनजन्मक्ष' शब्द का प्रयोग अपूर्व है-न विद्यते जनः जन्म यस्य स अजनः (प्रजापति, जो आत्मभू या स्वयंभू कहा गया है)। यहाँ 'अजनजन्मः' का अर्थ, लगता है, जिसका जन्मनक्षत्र वह रोहिणी है जिसका प्रजापति (अजन) देवता है। दूसरे एवं चौथे श्लोकों में रघुवंश (३३१४) के पद 'दिशः प्रसेदुर्मरुतो ववुः सुखाः' की ध्वनि फूट रही है।
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