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धर्मशास्त्र का इतिहास
जन्माष्टमी व्रत में प्रमुख कृत्य हैं उपवास, कृष्ण-पूजा, जागर ( रात का जागरण, स्तोत्र-पाठ एवं कृष्ण-जीवनसम्बन्धी कथाएँ सुनना ) एवं पारण |
तिथितत्त्व ( पृ० ४२-४७ ), समयमयूख ( पृ० ५२-५७), कालतत्त्वविवेक ( पृ० ५२-५६ ), व्रतराज ( पृ० २७४-२७७), धर्मसिन्धु ( पृ० ६८-६९ ) ने भविष्योत्तर ० ( अध्याय ५५ ) के आधार पर जन्माष्टमी व्रत विधि पर लम्बे-लम्बे विवेचन उपस्थित किये हैं । यहाँ हम प्रथम दो से संक्षेप में विधि पर प्रकाश डालते हैं, क्योंकि दोनों मे बहुत सीमा तक साम्य है ।
व्रत के दिन प्रातः व्रती को सूर्य, सोम (चन्द्र), यम, काल, दोनों सन्ध्याओं (प्रातः एवं सायं ), पंच भूतों, दिन, क्षपा (रात्रि), पवन, दिक्पालों, भूमि, आकाश, खचरों (वायु-दिशाओं के निवासियों) एवं देवों का आह्वान करना चाहिए, जिससे वे उपस्थित हों ।" उसे अपने हाथ में जलपूर्ण ताम्र पात्र रखना चाहिए, जिसमें कुछ फल, पुष्प, अक्षत हो और मास आदि का नाम लेना चाहिए और संकल्प करना चाहिए --- मैं कृष्णजन्माष्टमी व्रत कुछ विशिष्ट फल आदि तथा अपने पापों से छुटकारा पाने के लिए करूँगा ।' तब वह वासुदेव को सम्बोधित चार मन्त्रों का पाठ करता है जिसके उपरान्त वह पात्र में जल डालता है । उसे देवकी के पुत्र-जनन के लिए प्रसूति गृह का निर्माण करना चाहिए, जिसमें जल से पूर्ण शुभ पात्र, आम्रदल, पुष्पमालाएँ आदि रखना चाहिए, अगरु जलाना चाहिए और शुभ वस्तुओं से अलंकरण करना चाहिए तथा षष्ठी देवी को रखना चाहिए। गृह या उसकी दीवारों के चतुर्दिक् देवों एवं गन्धर्वो के चित्र बनवाने चाहिए (जिनके हाथ जुड़े हुए हों), वसुदेव ( हाथ में तलवार से युक्त ), देवकी, नन्द, यशोदा, गोपियों, कंस-रक्षकों, यमुना नदी, कालिय नाग तथा गोकुल की घटनाओं से सम्बन्धित चित्र आदि बनवाने चाहिए। प्रसूति गृह में परदों से युक्त बिस्तर तैयार करना चाहिए। व्रती को किसी नदी ( या तालाब या कहीं भी ) में तिल के साथ दोपहर में स्नान करके यह संकल्प करना चाहिए - 'मैं कृष्ण की पूजा उनके सहगामियों के साथ करूँगा ।' उसे सोने या चाँदी आदि की कृष्ण प्रतिमा बनवानी चाहिए, प्रतिभा के गालों का स्पर्श करना चाहिए और मन्त्रों के साथ उसकी प्राण-प्रतिष्ठा करनी चाहिए। उसे मन्त्र के साथ देवकी व उनके शिशु श्री कृष्ण का ध्यान करना चाहिए तथा वसुदेव, देवकी, नन्द, यशोदा, बलदेव एवं चण्डिका की पूजा स्नान, धूप, गन्ध, , नैवेद्य आदि के साथ एवं मन्त्रों के साथ करनी चाहिए। तब उसे प्रतीकात्मक ढंग से जातकर्म, नाभि-छेदन, षष्ठीपूजा एवं नामकरण आदि संस्कार करने चाहिए। तब चन्द्रोदय (या अर्धरात्रि के थोड़ी देर उपरान्त) के समय किसी वेदिका पर अर्घ्य देना चाहिए, यह अर्घ्य रोहिणी युक्त चन्द्र को भी दिया जा सकता है, अर्घ्य में शंख से जल अर्पण होता है जिसमें पुष्प, कुश, चन्दन लेप डाले हुए रहते हैं, यह सब एक मन्त्र के साथ होता है। इसके उपरान्त व्रती को चन्द्र का नमन करना चाहिए और दण्डवत् झुक जाना चाहिए तथा वासुदेव के विभिन्न नामों वाले श्लोकों का पाठ करना चाहिए और अन्त में प्रार्थनाएँ करनी चाहिए।' व्रती को रात्रि भर कृष्ण की प्रशंसा के स्तोत्रों, पौराणिक कथाओं,
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५. सूर्यः सोमो यमः कालः सन्ध्ये भूतान्यहः क्षपा । पवनो दिक्पतिर्भूमिराकाशं खचरामराः । ब्राह्म शासनमास्थाय कल्पध्वमिह सन्निधिम् ॥ ति० त० ( पृ० ४५) एवं स० म० ( पृ०५२) ।
६. भूमि पर गिर, प्रणाम करते समय का एक मन्त्र यह है- शरणं तु प्रपद्येहं सर्वकामार्थसिद्धये । प्रणमामि सदा देवं वासुदेवं जगत्पतिम् ॥ स० म० ( पृ०५४) एवं ति० त० ( पृ० ४५ ) | दो प्रार्थनामन्त्र ये हैं-त्राहि मां सर्वदुःखन रोगशोकार्णवाद्धरे । दुर्गतांस्त्रायसे विष्णो ये स्मरन्ति सकृत् सकृत्। सोऽहं देवातिदुर्वृत्रस्त्राहि मां शोकसागरात् । पुष्कराक्ष निमग्नोऽहं मायाविज्ञान सागरे ॥ वही ।
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