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नाग-पूजा का विकास, रक्षाबन्धन, कृष्णपूजा की प्राचीनता
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जब कि जंगली हिंसक पशुओं से केवल ३००० के लगभग लोग मारे जाते हैं। गृह्यसूत्रों में वर्णित सर्पबलि की पूर्णिमा तिथि शुक्ल पक्ष की पंचमी में क्यों परिवर्तित हो गयी, स्पष्ट रूप से कारण नहीं ज्ञात हो पाता। दिषुवत् रेखा पर पहले वर्षा हो जाने के थोड़े परिवर्तन के कारण ही ऐसा हो सका होगा। पीपल जैसे पवित्र वक्षों के नीचे सों की प्रस्तर-प्रतिमाएँ द्रविड़ देश में साधारण रूप से प्राप्त होती हैं। दक्षिण में कुछ नाग-मन्दिर भी पाये जाते हैं, यथा सतारा जिले में बत्तिस शिरालेन एवं हैदराबाद में भोग पराण्देन नामक स्थानों में।
श्रावण की पूर्णिमा को अपराल में एक कृत्य होता है जिसे रक्षाबन्धन' कहते हैं। देखिए हे. (व्रत, भाग २, प० १९०-१९५), नि० सि० (प० १२१), पू० चि० (प० २८४-२८५), व्रतार्क। श्रावण की पूर्णिमा को सूर्योदय के पूर्व उठकर देवों, ऋषियों एवं पितरों का तर्पण करने के उपरान्त अक्षत, तिल, धागों से युक्त रक्षा बनाकर धारण करना चाहिए। राजा के लिए महल में एक वर्गाकार भूमि-स्थल पर जल-पात्र रखा जाना चाहिए, राजा को मन्त्रियों के साथ आसन ग्रहण करना चाहिए, वेश्याओं से घिरे रहने पर गानों एवं आशीर्वचनों का तांता लगा रहना चाहिए; देवों, ब्राह्मणों एवं अस्त्र-शस्त्रों का सम्मान किया जाना चाहिए, तत्पश्चात् राजपुरोहित को चाहिए कि वह मन्त्र के साथ 'रक्षा' बाँधे--'आप को वह रक्षा बाँधता हूँ जिससे दानवों के राजा बलि बाँधे गये थे, हे रक्षा, तुम (यहाँ) से न हटो, न हटो। सभी लोगो को, यहाँ तक कि शूद्रों को भी, यथाशक्ति पुरोहितों को प्रसन्न करके रक्षा-बन्धन बँधवाना चाहिए। जब ऐसा कर दिया जाता है तो व्यक्ति वर्ष भर प्रसन्नता के साथ रहता है। हेमाद्रि ने भविष्योत्तरपुराण का उद्धरण देते हुए लिखा है कि इन्द्राणी ने इन्द्र के दाहिने हाथ में रक्षा बाँधकर उसे इतना योग्य बना दिया कि उसने असुरों को हरा दिया। जब पूर्णिमा चतुर्दशी या आने वाली प्रतिपदा से युक्त हो तो रक्षा-बन्धन नहीं होना चाहिए। इन दोनों से बचने के लिए रात्रि में ही यह कृत्य कर लेना चाहिए।
यह कृत्य अब भी होता है और पुरोहित लोग दाहिनी कलाई में रक्षा बाँधते हैं और दक्षिणा प्राप्त करते हैं। गुजरात, उत्तर प्रदेश एवं अन्य स्थानों में नारियाँ अपने भाइयों की कलाई में रक्षा बाँधती हैं और भेटें लेती-देती हैं।
श्रावण की पूर्णिमा को पश्चिमी भारत (विशेषतः कोंकण एवं मलाबार में) न केवल हिन्दू, प्रत्युत मुसलमान एवं व्यवसायी पारसी भी, समुद्र-तट पर जाते हैं और समुद्र को पुष्प एवं नारियल चढ़ाते हैं। श्रावण की पूर्णिमा को समुद्र में तूफान कम उठते हैं और नारियल इसीलिए समुद्र-देव (वरुण) को चढ़ाया जाता है कि वे व्यापारी जहाजों को सुविधा दे सकें।
श्रावण (अमान्त) कृष्णपक्ष की अष्टमी को कृष्णजन्माष्टमी या जन्माष्टमी व्रत एवं उत्सव प्रचलित है, जो भारत में सर्वत्र मनाया जाता है और सभी व्रतों एवं उत्सवों में श्रेष्ठ माना जाता है। कुछ पुराणों में ऐसा आया है कि यह भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है। इसकी व्याख्या यों है कि पौराणिक वचनों में मास पूर्णिमान्त हैं तथा इन मासों में कृष्ण पक्ष प्रथम पक्ष है । पद्म० (३।१३), मत्स्य'० (५६), अग्नि० (१८३) में कृष्णजन्माष्टमी के माहात्म्य का विशिष्ट उल्लेख है।
कृष्ण-पूजा की प्राचीनता एवं कृष्ण के विषय में संक्षेप में कुछ कह देना आवश्यक है। छान्दोग्योपनिषद् (३।१७।६) में आया है कि कृष्ण देवकीपुत्र ने घोर आंगिरस से शिक्षाएँ ग्रहण की। कृष्ण नाम के एक वैदिक कवि थे जिन्होंने अश्विनों से प्रार्थना की है (ऋ० ८।८५।३)। अनुक्रमणी ने ऋ० ८।८६-८७ को कृष्ण-आंगिरस का माना
३. देवद्विजातिशस्ता सुस्त्रीरयैः समर्चयेत् प्रथमम् । तदनु पुरोधा नृपतेः रक्षां बध्नीत मन्त्रेण ॥ येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः । तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥भविष्योत्तर० (१३७।१९-२०)।
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