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धर्मशास्त्र का इतिहास प्रबोध या जागरण से सम्बन्धित) कहा गया है। वर्षा काल में चार मासों तक भारत के बहुत-से भागों में यातायात की सुविधाएँ प्राचीन काल में नहीं थीं, इसी से सब काम ठप्प हो जाते थे और तभी विष्णु को भी शयन करते हुए परिकल्पित कर लिया गया है। यह भी सम्भव है कि विष्णु-शयन का सम्बन्ध वैदिक आर्यों के पूर्व पुरुषों की उन परिस्थितियों से हो जब कि वे उत्तरी अक्षांशो में रहते थे और जहाँ चार मासों तक सूर्य या तो दिखाई ही नहीं पड़ता था या बहुत ही मन्दा प्रकाश करता था। चार मासों का विष्णु-शयन अन्य' रूपों से भी व्याख्यात हो सकता है। ऐसा माना गया है कि विष्णु न केवल अपने शेष सर्प पर सोते हैं, प्रत्युत वे भाद्रपद की शुक्ल एकादशी को मानवों के सदृश करवट भी बदलते हैं। अतः भाद्रपद की वह एकादशी परिवर्तिनी भी कही जाती है। इसी प्रकार अन्य तिथियों में देवों एवं देवियों के शयन की बात उठी है (देखिए राजमार्तण्ड, व० क्रि० कौ०, पृ० २८५-२८६ में उद्धृत)। विष्णु-शयन की तिथियों के विषय में भी अन्तर्भेद पाया जाता है, किसी मत से एकादशी को, किसी से द्वादशी को तथा तीसरे मत से आषाढ़ शुक्ल की १५वीं तिथि को विष्णु शयन करते हैं। वन० (२०३।१२) के मत से विष्णु शेष के फण पर सोते हैं। कालिदास में भी शयन का उल्लेख है (मेघदूत)। बहुत-से कारणों के आधार पर यह सिद्ध किया जा सकता है कि विष्णु-शयन की अनुश्रुति कम-से-कम २००० वर्ष प्राचीन है।
पुराणों एवं निबन्धों में देवों के शयन की तिथियों के विषय में बड़ा विस्तार पाया जाता है। वामन० (१६।६-१६) में आया है-'आषाढ़ की एकादशी को विष्णु के शयन के लिए शेष नाग के फणों के समान शय्या बनानी चाहिए, शुद्ध होकर द्वादशी को आमन्त्रित ब्राह्मणों से आज्ञा लेकर भगवान् को सुलाना चाहिए।' पुराणों में ऐसा आया है कि कामदेव आषाढ़ की त्रयोदशी को कदम्ब पुष्पों पर सोते हैं, यक्ष लोग चतुर्दशी को, शिव पूर्णिमा को व्याघ्र-चर्म पर, और ब्रह्मा, विश्वकर्मा, पार्वती, गणेश, यम, स्कन्द, सूर्य, कात्यायनी, लक्ष्मी, नागराज एवं साध्य लोग कम से कृष्ण पक्ष की प्रथमा से एकादशी की तिथियों में सोते हैं। का० वि० (पृ० २२५), हेमाद्रि (काल, पृ० ८८८-८८९) के उद्धरणों से पता चलता है कि पवित्रारोपण (देवों को जनेऊ देना) एवं शयन के लिए कुबेर, लक्ष्मी, भवानी, गणेश, सोम, गुह, भास्कर, दुर्गा, माताएँ, वासुकि, ऋषिगण, विष्णु, काम एवं शिव क्रम से प्रथमा से लेकर चतुर्दशी तक की तिथियों के स्वामी हैं।
एक आवश्यक नियम स्मरण रखने योग्य है कि जिसका जो नक्षत्र हो या जिस तिथि का जो स्वामी हो, शयन, करवट-परिवर्तन तथा अन्य कार्य (जागरण आदि) उसी तिथि एवं नक्षत्र में होते हैं। शयन की तिथियों के विषय में प्रभूत मतभेद है। विस्तार-भय से हम इसे यहीं छोड़ते हैं।
___ एकादशी व्रत के अधिकारियों को हम दो भागों में बाँट सकते हैं, वैष्णव एवं स्मार्त । पद्म० (३।१०२०३२, ४।१०।६५-६६, ६।२५२।७४, ६।५९), विष्णु० (३।७।२०-३३, ३।८।९-१९), भागवत एवं कुछ निबन्धों में 'वैष्णव' शब्द परिभाषित है। वैष्णव वह है जो वैखानस, पांचरात्र आदि सम्प्रदायों के वैष्णव आगमों के अनुसार दीक्षा लिये रहता है। वैष्णव-परिभाषा के लिए देखिए स्कन्दपुराण एवं प्रो० एस० के० दे द्वारा लिखित 'वैष्णव फेथ एवं मूवमेण्ट' (पृ० ३६४-३६६ एवं ४१३)।।
जब एकादशी दशमी एवं द्वादशी से संयुक्त होती है तो किस तिथि पर उपवास किया जाय? इस प्रश्न का उत्तर व्यक्ति के वैष्णव एवं स्मार्त होने पर निर्भर है। इस विषय में जो नियम हैं, वे बड़े गूढ़ हैं और हम स्थान-संकोच से उनका विवेचन छोड़ रहे हैं। देखिए हे० (काल, पृ० २०६-२८८), का० नि० (पृ० २३३-२५६), ति० त० (पृ० १०४-१०८), स० प्र० (पृ० ६६-७४), नि० सि० (पृ० ३७-४४), स्मृतिमुक्ताफल (काल, पृ० ८३९-८४४) एवं ध० सि० (पृ० १६-१९)।
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