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(दव शिल्प
ही जिनालय हीं मूल बीजाक्षर है। मन्त्रों में यह बीजाक्षर कल्याण के लिये प्रयुक्त किया जाता है। ॐ की भांति ही हौं भी सर्वकल्याण मंगल के लिये जैन जै-नेतर मन्त्रों में प्रयुक्त होता है। जैन शारत्रों में पंच परमेष्ठी अर्थात अरिहन्त, अशरीरो (सिद्ध) आचार्य उपाध्याय एवं मुनि (साधु) को संयुक्त रूप से व्यक्त करने कि लिये ॐ बीजाक्षर का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार चौबीस तीर्थंकरों को रांयुक्त रूप से व्यक्त करने के लिये ह्रीं बीजाक्षर का प्रयोग किया जाता है। जब एक तीर्थंकर का नाग मात्र मंगलकारी होता है तो चौबीस तीर्थंकरों को एक साथ व्यक्त करने वाला ह्रों बीजाक्षर कितना मंगलकारों है, यह वर्णनातीत है।
हाँ को जिनालय के रूप में भी पूजा जाता है। हाँ की आकृति बनाकर उसमें चौबीस तीर्थंकारों की रथापना की जाती है। चौबीस तीर्थंकरों की स्थापना इस प्रकार की जाती
ह्री में स्थित चंद्राकार में बिन्दु गें ऊपरी पंक्ति में ई मात्रा में ह अक्षर में
तीर्थंकर का नाम चन्द्रप्रभु, पुष्पदन्त नेमिनाथ, मुनिसुव्रतनाथ पद्मप्रभु, वासुपूज्य सुपार्श्वनाथ. पार्श्वनाथ ऋषभनाथ, अजितनाथ, संभवनाथ, अभिनंदननाथ, रागतिनाथ, शीतलनाथ, श्रेयांसनाथ, विगलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ शांतिनाथ, कुन्थु नाथ, अरहनाथ, मल्लिनाथ, नामेनाथ, वर्धमान बाभी
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ही में चौबीस तीर्थकरों के यक्ष यक्षिणियों की भी स्थापना की जाती है । ह्रौं कार की रथापना मूलनायक प्रतिमा की भांति भी की जा सकती है। अन्य सामान्य वेदी में भी ही की स्थापना की जा सकती है।
प्राकृत भाषा में ह्रीं की रचना