Book Title: Devshilp
Author(s): Devnandi Maharaj
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 484
________________ (देव शिल्प ४६२ उपसंहार देवशिल्प रचना आपके लिए प्रस्तुत हैं । इसमें मन्दिर विषय पर यथा संभव अधिकाधिक व्यवहारिक जानकारी देने का लघु प्रयास किया गया है । यद्यपि यह विद्या प्राचीन काल से ही विद्यमान है फिर भी समय परिवर्तन के साथ ही कुछ नए निर्माण तथा नई शैलियां विकसित हुई हैं। यथा शक्ति यह प्रयास किया गया है कि सभी प्रकार के धार्मिक निर्माणों को इस ग्रन्थ की परिधि में लाया जा सके | सुधी पाठक ही बतायेंगे कि यह उपक्रम अपने उद्देश्य में कितना सफल होता है । ग्रन्थ समापन के निमित्त मैं इतना निवेदन अवश्य करना चाहता हूँ कि समाज के प्रतिष्ठाचार्य विद्वान गण, श्रेष्ठी वर्ग तथा तीर्थ क्षेत्र एवं समाज के सक्रिय कार्यकर्ता इस बात को स्मरण रखें कि मन्दिर त्रिलोकपति तीर्थंकर प्रभु का आलय है। यह नय देवताओं में से एक है । भन्दिर पृथक रूप हो भी देवता होने के कारण पूज्य है । मन्दिर में स्थापित प्रतिमा का दर्शन मात्र भी कर्म क्षय का हेतु हैं तथा सम्यग्दर्शन प्राप्ति का कारण भूत है। ऐसी स्थिति में भगवान की प्रतिमा की अपनी मर्जी से इधर-उधर करना, अविनय पूर्वक कहीं भी स्थापित करना तथा वास्तु शास्त्र के सिद्धांतों के विपरीत मन्दिर एवं परिसर की अन्य रचनाओं का निर्माण करना अत्यंत हानिकारक है। ऐसा करने से न केवल तीर्थक्षेत्र एवं मन्दिर का दिव्य प्रभाव कम होता है बल्कि उपासक, समाज एवं मन्दिर की व्यवस्था करने वाले प्रबन्धक गण भी विपरीत रूप से प्रभावित होते हैं। दानदाता की मर्जी से अथवा यशोलिप्सा में बत व्यक्तियों के प्रभाव में आकर मन्दिर की तोड़फोड़ करना तथा शास्त्रोक्त रीति से विपरीत कार्य करना भयावह परिणाम उत्पन्न कर सकता है। अतएव विवेक पूर्वक, समझकर ही परम पूज्य गुरुजन आचार्य परमेष्ठी के आशीर्वाद पूर्वक मार्गदर्शन लेकर ही मन्दिर निर्माण आदि का उद्यम करना चाहिये । प्रतिमाओं की स्थापना भी विवेक पूर्वक करना चाहिये। मूलनायक प्रतिमा किस तीर्थंकर की बनायें, इसका निर्णय ज्योतिष प्रकरण के अनुसार अवश्य करें । मन्दिर की प्रतिष्ठा भी पूर्ण विधि विधान से ही करना चाहिये। शार्टकट के चक्कर में पड़कर विधि विधान में करार न करें | वास्तु

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