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(देव शिल्प)
पीठ पोट का आशय प्रासाद/मन्दिर के आसन्न से है। प्रासाद की मर्यादित भूगि पर जगती बनाई जाती है। जगती पर मन्दिर की मर्यादित भूमि पीठ पर बनाई जाती है। मन्दिर की दीवारें पीठ पर उठाई जाती है। पोट का प्रमाण एवं अनुपात शिल्पशास्त्र के अनुरुप ही रखना चाहिये। प्रासाद में भिट्ट के ऊपर पीठ बनायी जाती है । पीठ की ऊंचाई का प्रमाण प्रासाद की चौड़ाई के अनुपात से इस प्रकार है :
प्रा. मं. ३/५-६
मंडोवर
नस्थर
वर्णिका नारा पट्टी
अश्वश्र
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1--132
YAARI
गजथर
here २.पही कपातली
कु. जाइयम
प्रारापट्टी
"अंतरपत्र
कर्णिका
निवा जायम
कणपीठ
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जादाबा
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LasaraKAHश::
महापीट
काम
पीठ के भेद
በጃ፦
क.मगंट
गज पीठ - गज आदि थरों से युक्त पोट को गज की कहते । ऐसी रूप बालो पीउ का निfur
अत्यन्त न्यय साध्य कार्य है। कामद पीठ - जाइयकुंभ, कार्गिका.
याम बाली सातारा पीट बनायी जाये तो उसे काम, पीडका हैं। कण पीठ - जायकुम्भ तथा कर्णिका बालो को भर माली बन रहो का पील वाहते हैं।
इसमें ध्यान रखें कि लतिन जाति के प्रासादों में बाहर निकलता हुआ माग कम होता है जबकि सांधार जाति के प्रासादों के मील का निकला हुआ या अधिक होता है।