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देव शिल्प)
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गृह चैत्यालय
गृहस्थ जनों के निवास स्थानों में भी पूजा अर्चना का स्थान बनाया जाता है। इसका कारण यह है कि यादे किसी कारण से मंदिर जाना न हो सके तो गृह स्थित मन्दिर में भी पूजा अर्चना की जा सके। ऐसा करना इसलिए भी आवश्यक है कि जनसंख्या विस्तार के कारण बस्तियां फैलती जा रही हैं। सब जगह मन्दिर न तो हैं, न सब जगह बनना ही संभव है। अतएव निवास स्थान पर ही जिनेन्द्र प्रभु की अर्चना हो सके, इसके लिये घर पर ही जिन प्रतिमा की शास्त्र की अनुमति के अनुरूप स्थापना करना चाहिये। बढती हुई व्यावसायिक व्यस्तता के कारण भी मन्दिर का घर पर होना लाभदायक होता है, ताकि काग पर निकलने के पूर्व उपासक घर पर ही पूजा अर्चना कर सके ।
गृह चैत्यालय का अर्थ है घर पर जिन प्रतिमा का मंदिर। घर पर चैत्यालय में प्रतिभाएं रखने का अलग विधान है। साथ ही चैत्यालय बनाने का अलग विधान है। विभिन्न श्रावकाचारों में जैनाचार्यों ने इसका स्पष्ट निर्देश किया है।
गृह चैत्यालय की रचना
गृह चैत्यालय में दीवाल से स्पर्श मूर्ति स्थापित करना सर्वथा अशुभ है। ऐसा कभी न करें। गृह चैत्यालय में कभी भी पाषाण का मन्दिर नहीं बनायें। यदि चित्र दीवाल पर बने हैं तो शुभ हैं। आल्मारी या दीवाल में बने हुए आले में भी भगवान की प्रतिमा स्थापित न करें। *
गृह चैत्यालय के लिए पुष्पक विमान के समान आकृति वाला काष्ठ का चैत्यालय बनायें। इसमें ध्वजादण्ड नहीं लगायें। आमलसार कलश लगा सकते हैं।
गृह चैत्यालय के लिये काष्ठ का मन्दिर वर्गाकार आकृति का बनायें। इसमें पीठ, उप पोठ तथा उस पर वर्गाकार तल बनायें। चारों कोनों पर चार स्तंभ लगायें। चारों ओर तोरण युक्त द्वार, चारों ओर छज्जा, ऊपर कनेर के पुष्प की भांति (चार गुमट तथा मध्य में एक गुम्बज ) बनायें ।
अन्य मतानुसार एक या तीन द्वार का भी गृह मन्दिर बना सकते हैं तथा एक ही गुंबज का बना सकते हैं। गर्भगृह से ऊंचाई सवा गुनी रखना चाहिये तथा बाहर निकलता भाग (निर्गम) आधा रखना चाहिये ।
* भित्ति संलग्न बिम्बश्च पुरुषः सर्वथाऽशुभः ।
चित्रमयाश्च नागाद्यः भित्तौ चैव शुभावहः ॥ शि. र. १२/२०४
न कदापि ध्वजादड़ो स्थाप्यो वै गृहमंदिरे।
कलशमरसारौ च शुभदौ परिकीर्तिता ॥ शि. र. १२ / २०८