Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 8
________________ दर्शनसार । ___ अर्थ-मछलियोंके आहार करनेसे वह ग्रहण की हुई दीक्षासे भ्रष्ट हो गया और रक्ताम्बर (लाल वस्त्र धारण करके उसने एकान्त मतकी प्रवृत्ति की। मंसस्स णत्थि जीवो जहा फले दहिय-दृद्ध-सक्करए । तम्हा तं वंछित्ता तं भक्खंतो ण पाविट्ठो ॥८॥ मासस्य नास्ति जीवो यथा फले दधिदुग्धशर्करायां च । तस्मात्तं वाञ्छन् तं भक्षन् न पापिष्ठः ॥ ८ ॥ अर्थ-फल, दही, दूध,शकर, आदिके समान मांसमें भी जीव नहीं है, अतएव उसकी इच्छा करने और भक्षण करनेमें कोई पाप नहीं है । मज्ज ण वज्जणिज्ज दवदव्वं जहजलं तहा एदं। इदि लोए घोसित्ता पवट्टियं सव्वसावज ॥९॥ मद्य न वर्जनीयं द्रवदन्यं यथा जल तथा एतत् । इति लोके घोषयित्वा प्रवर्तित सर्वसावा ॥९॥ अर्थ-जिस प्रकार जल एक द्रव द्रव्य अर्थात् तरल या वहनेवाला पदार्थ है उसी प्रकार शराव है, वह त्याज्य नहीं है। इस प्रकारकी घोषणा करके उसने संसारमें सम्पूर्ण पापकर्मकी परिपाटी चलाई। अण्णो करेदि कम्म अण्णो तं भुंजदीदि सिद्धतं। परिकप्पिऊण णूणं वसिकिच्चा णिरयमुववण्णो॥१०॥ अन्य. करोति कर्म अन्यस्तद्भुनक्तीति सिद्धान्तम् । परिकल्पयित्वा नूनं वशीकृत्य नरकमुपपन्नः ॥ १० ॥ अर्थ-एक पाप करता है और दूसरा उसका फल भोगता है, इस तरहके सिद्धान्तकी कल्पना करके और उससे लोगोंको वशमें करके

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