Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 29
________________ २७ दर्शनसार। mmmmmmmmmmmmmmmmmmm शुद्धोदनके पुत्र वुद्धको परमात्मा कहा । दर्शनसार और धर्मपरीक्षाकी वतलाई हुई वातोंमे विरोध मालूम होता है। पर एक तरहसे दोनोंकीसंगति वेठ जाती है। महावग्ग आदि बौद्ध ग्रन्थोंसे मालूम होता है कि मौडिलायन और सारीपुत्त दोनों वुद्धदेवके प्रधान शिष्य थे। ये जव वुद्वदेवके शिष्य होनेको जा रहे थे, तब इनके साथी संजय परिब्राजकने इन्हें रोका था । इससे मालूम होता है कि ये पहले जैन रहे होंगे और मौडिलायनका गुरु पार्श्वनाथकी परम्पराका कोई साधु होगा। मौढिलायन बौद्धधर्मके प्रधान प्रचारकोंमें था, इस कारण ही शायद वह बौद्धधर्मका प्रवर्तक कह दिया गया है, परन्तु वास्तवमें वह शुद्धोदनसुत वुद्धका शिष्य और उन्हींके सिद्धान्तोंका प्रचारक था । अब उक्त दोनों ग्रन्योंका सम्मिलित अभिप्राय यह निकला कि पार्श्वनाथके धर्मतीर्थमें पिहितास्रव नामक जैनसाधुके शिष्य बुद्धदेव हुए और बुद्धदेवका शिष्य मोदिलायन हुआ, जो स्वयं भी पहले जैन था। ९ आठवीसे १०वी गाथा तक बौद्धधर्मके कुछ सिद्धान्त बतलाये गये हैं। पहला यह है कि मांसमें जीव नहीं है । बौद्धधर्ममें 'प्राणिवघ' का तो तीव्र निषेध है, परन्तु यह आश्चर्य है कि वह मरे हुए प्राणीके मांसमें जीव नहीं मानता। मद्यके पीनेमें दोष नहीं है ऐसा जो कहा गया है, सो ठीक नहीं मालूम होता । क्योंकि वौद्ध साधुओंको 'विनयपिटक' आदि ग्रंथोंके अनुसार जो दशशील ग्रहण करना पढ़ते है और जिन्हें बौद्धधर्मके मूल गुण कहना चाहिए उनमेंसे पाँचवॉ शील इन शब्दोंमें ग्रहण करना पड़ता है-'मै मद्य या किसी भी मादक द्रव्यका सेवन नहीं करूँगा।' ऐसी दशामें शराव पीनेकी आज्ञा वुद्धदेवने दी, यह नहीं कहा जा सकता ।। १० ग्यारहवीं और वारहवीं गाथामें श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय और उसके उत्पादकका नाम बतलाया गया है । श्वेताम्ब

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