Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 42
________________ दर्शनसार। नसारके बननेका जो संवत् है वह शक संवतहोगा, अर्थात् वह विक्रम संवत् १०४४ में बना होगा; परन्तु इसके विरुद्ध दो बातें कहीं जा सकती हैं। एक तो यह कि जब सारे ग्रन्यमें विक्रम संवत्का उल्लेख किया गया है, तब केवल अन्तकी गाथामें शक संवत् लिखा होगा, इस बातको माननेकी ओर प्रवृत्ति नहीं होती, दूसरी यह कि धारानगरी मालवेमें हैं । मालवेका प्रधान संवत् विक्रम है । उस ओर शक संवतके लिखनेकी पद्धति नहीं है । इसके सिवाय ऐसा मालूम होता है कि माथुरसंघ सं० ९५३ से पहले ही स्थापित हो गया होगा। आचार्य अमितगति माथुर संघमें ही हुए हैं। उन्होंने विक्रम संवत् १०५० में 'सुमाषितरत्नसन्दोह' ग्रन्थ रचा है। उन्होंने अपनी जो गुरुपरम्परा दी है, वह इस प्रकार है - १ वीरसेन,२ देवसेन, ३ अमितगति (प्रथम),४ नेमिषण, ५ माधवसेन और ६ अमितगति । यदि यह माना जाय कि अमितगति १०५० के लगभग आचार्य हुए होंगे और उनसे पहलेके पॉच आचार्योंका समय केवल बीस ही वीस वर्ष मान लिया जाय, तो वीरसेन आचार्यका समय वि० संवत् ९५० के लगभग प्रारंभ होगा। परन्तु वीरसेन माथुरसघके पहले आचार्य नहीं था उसके पहले और भी कुछ आचार्य हुए होंगे। यदि रामसेन इनसे दो तीन पीढ़ी ही पहले हुए हों तो उनका समय विक्रमकी नवीं शताब्दिका उत्तरार्ध ठहरेगा । गरज यह कि काष्ठासंघ और माथुरसंघ इन दोनों ही संघोंकी उत्पत्तिके समयमें भूल है । इन सब संघाकी उत्पतिके समयकी संगति बिठानेका हमने बहुत प्रयत्न किया, परिश्रम भी इस विषयमें खूब किया, परन्तु सफलता नहीं हुई। १८ इन चार संघों से इस समय केवल काष्ठासघका ही नाम मात्रको आस्तित्व रह गया है क्योंकि इस समय भी एक दो भट्टारक ऐसे है जो चमरकी पिच्छी रखते है और अपनेको काष्ठासघी प्रकट करते हैं, शेष तीन संघोका सर्वथा लोप समझना चाहिए ।

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