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दर्शनसार ।
माथुरसंघको इस ग्रन्थमें जुदा बतलाया ह, परन्तु कई जगह इसे काष्ठासंघकी ही एक शाखा माना है । इस संघकी चार शाखाओंमेंसेजो नगरों या प्रान्तोंके नामसे है-यह भी एक है । यथाः--
काष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः। तत्र गच्छश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ ॥१ श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो वागड़ाभिधः । लाड़वागड़ इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले ॥२
-सुरेन्द्रकीर्तिः। अलग बतलानेका कारण यह मालूम होता है कि माथुरसंघमें साधुके लिए पिच्छि रखनेका विधान नहीं है और काष्ठासंघमें गोपुच्छकी पिच्छि रखते हैं। इसी कारण काष्ठासघको 'गोपुच्छक' और माथुरसंघको 'नि:पिच्छिक ' भी कहते है। इन दोनोंमें और भी दो एक बातोंमें भेद होगा । काष्ठासंघका कोई भी यत्याचार या श्रावकाचार उपलब्ध नहीं है, इसलिए उसमें मूलसंघसे क्या अन्तर है, इसका निर्णय नहीं हो सकता; परन्तु माथुरसघका अमितगति आवकाचार मिलता है। उससे तो मूलसंघके श्रावकाचारोंसे कोई ऐसा मतभेद नहीं है जिससे वह जैनाभास कहा जाय । जान पड़ता है केवल निपच्छिक होनेसे ही वह जैनामास समझा गया है। काष्ठासंघके विशेष सिद्धान्त ३५ वीं गाथामें बतलाये गये है। परन्तु उनमेंसे केवल दो ही स्पष्ट होते हैंएक तो कड़े वालोंकी या गायकी पूछके बालोंकी पिच्छी रखना और दूसरा क्षुल्लक लोगोंको वीरचर्या अर्थात् स्वयं भ्रामरी वृत्तिसे भोजन करना। पं० आशाधरने क्षुल्लकोंके लिए इसका निषेध किया है। शेष दो बातें अस्पष्ट हैं, उनका अभिप्राय समझमें नहीं आता । एक तो 'इत्थीणं पुणदिक्खा' अर्थात स्त्रियोंको पुनः दीक्षा देना और दूसरी यह कि 'छठा गुणवत' मानना । गुणव्रत तो तीन ही माने गये हैं;