________________
दर्शनसार ।
४३
तत्र उल्लेख मिलता है । मूलसंघके साथ इसका किन किन बातों में विरोध है, इसका उल्लेख २७-२८ गाथाओंमें किया गया है | परन्तु इस संघके आचारसम्बन्धी ग्रन्थोंका परिचय न होनेसे कई बातोंका अर्थ स्पष्ट समझमें नहीं आता । ग्रन्थकर्ताने उन्हें कहा भी बहुत अस्पष्ट शब्दों में है। लिखा है वह वीजोंमें जीव नहीं मानता और यह भी लिखा है कि वह प्रासुक नहीं मानता। वीजोंमें जीव नहीं मानता, इसका अर्थ ही यह है कि वह बीजों को प्रासुक मानता है । वह सावद्य मी नहीं मानता | सावद्यका अर्थ पाप होता है, पर कुछ होता ही नहीं है, ऐसा कोई जैनसंघ नहीं मान सकता । गृहकाल्पित अर्थको नहीं गिनता, इसका अभिप्राय बहुत ही अस्पष्ट है ।
(
पाप'
२५ वीं गाथाएँ यापनीय संघका उल्लेख मात्र है, परन्तु उसके सिद्धान्त वगैरह बिलकुल नहीं बतलाये है । जान पड़ता है कि ग्रन्थकर्ताको इस संघके सिद्धान्तोंका परिचय नहीं था । श्वेताम्वरस - म्प्रदाय में श्रीकलश नामके आचार्य कोई हुए हैं या नहीं, जिन्होंने यापनीय सघकी स्थापना की, पता नहीं लगा । अन्य ग्रन्थोंसे पता चलता है कि इस संघके साघु नग्न रहत थे, परन्तु दिगम्बर सम्प्रदायको जो दो वातें मान्य नहीं हैं एक तो स्त्रीमुक्ति ओर दूसरी केवलिभुक्ति, उन्हें यह मानता था । श्वेताम्बर सम्प्रदायके आवश्यक, छेदसूत्र, नियुक्ति, आदि ग्रन्थोंको मी शायद वह मानता था, ऐसा शाकटायन की अमोधवृत्तिके कुछ उदाहरणोंसे मालूम होता है । आचार्य शाकटायन या पाल्यकीर्ति इसी संघके आचार्य थे । उन्होंने ' स्त्रीमुक्ति - केवलिमुक्तिसिद्धि ' नामका एक ग्रन्थ बनाया था, जो अभी पाटणके एक माण्डारमें उपलब्ध हुआ है । यापनीयको 'गोप्य' संघ भी कहते हैं । आचार्य हरिभद्रक्त पट्ट्ट्र्शनसमुच्चयकी गुणर