Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 59
________________ परिशिष्ट । mmmrAmrarh4PAPaw दण्ड, तूम्बा, पात्र, आवरण ( संथारा) और सफेद वस्त्र धारण कर लिये । ५८ । ऋषियोंका (सिहवृत्तिरूप ) आचरण छोड़ दिया और दीनवृत्तिसे भिक्षा ग्रहण करना, बैठ करके, याचना करके और स्वेच्छापूर्वक वस्तीमें जाकर भोजन करना शुरु कर दिया । ५९। उन्हें इस प्रकार आचरण करते हुए कितना ही समय बीत गया । जब सुभिक्ष हो गया, अन्नका कष्ट मिट गया, तब शान्ति आचार्यने संघको बुलाकर कहा, कि अब इस कुत्सित आचरणको छोड़ दो, और अपनी निन्दा, गर्दा करके फिरसे मुनियोंका श्रेष्ठ आचरण ग्रहण कर लो ॥६०-६१ । इन वचनोंको सुनकर उनके एक प्रधान शिष्यने कहा कि अब उस अतिशय दुर्वर आचरणको कौन धारण कर सकता है ? उपवास, भोजनका न मिलना, तरह तरहके दुस्सह अन्तराय, एक स्थान, वस्रोका अभाव, मान, ब्रह्मचर्य, भूमिपर सोना, हर दो महीनेमे केशोंका लोच करना, और असहनीय बाईस परीषह, आदि बड़े ही कठिन आचरण है। ६२-६४ । इस समय हम लोगोंने जो कुछ आचरण ग्रहण कर रक्सा है, वह इस लोकमें भी सुखका कर्ता है । इस दु.षम कालमे हम उसे नहीं छोड़ सकते । ६५ तव शान्याचार्यने कहा कि यह चारित्रसे भ्रष्ट जीवन अच्छा नहीं। यह जेनमार्गको दुषित करना है। ६६ । जिनेन्द्र भगवानने निर्घन्य प्रवचनको ही श्रेष्ट कहा है। उसे छोडकर अन्यकी प्रवृत्ति करना मिथ्यात्व है । ६७। इस पर उस शिष्यने रुष्ट होकर अपने बड़े डंडेसे गुरुके सिरमें आघात किया, जिससे शान्त्याचार्यकी मृत्यु हो गई और वे मर करके व्यन्तर देव हुए। ६८ । इसके बाद वह शिष्य संघका स्वामी बन गया और प्रकट रूपमें सेवड़ा या श्वेताम्बर हो गया ! वह लोगोंको धर्मका उपदेश देने लगा और कहने लगा कि सग्रन्थ या सपरिग्रह अवस्थामें निर्वाणकी प्राप्ति हो सकती है । ६९ । अपने

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