Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 61
________________ परिशष्ट। शरीरान्त हो गया। सभिक्ष होने पर उनके शिष्य विशासाचार्य आदि लौटकर उज्जयिनीमें आये। उस समय स्थूलाचार्यने अपने साथियोंको एकत्र करके कहा कि शिथिलाचार छोड़ दो, पर अन्य साधुओंने उनके उपदेशको न माना और क्रोधित होकर उन्हें मार डाला । स्थूलाचार्य व्यन्तर हुए। उपद्रव करने पर वे कुलदेव मानकर पूजे गये। इन शिथिलाचारियोंसे 'अर्द्ध फालक' (आधे कपड़ोंवाले) सम्प्रदायका जन्म हुआ । इसके बहुत समय वाद उज्जयिनाम चन्द्रकीर्ति राजा हुआ। उसकी कन्या वल्लभीपुरके राजाको व्याही गई। चन्द्रलेखाने अर्धफालक साधुओंके पास विद्याध्ययन किया था, इसलिए वह उनकीभक्त थी। एक बार उसने अपने पतिसे उक्त साधुओंको अपने यहाँ बुलानेके लिए कहा । राजाने बुलानेकी आज्ञा दे दी। वे आये और उनका खूब धूम धामसे स्वागत किया गया। पर राजाको उनका वेष अच्छा न मालूम हुआ । वे रहते तो थे नग्न, पर ऊपर वस्त्र रखते थे । रानीने अपने पतिके हृदयका भाव ताड़कर साधुओंके पास श्वेत वस्त्र पहननेके लिए भेज दिये । साधुओंने भी उन्हें स्वीकार कर लिया । उस दिनसे वे सब साधु श्वेताम्बर कहलाने लगे । इनमें जो साधु प्रधान था, उसका नाम जिनचन्द्र था।" अब इस वातका विचार करना चाहिए कि भावसंग्रहकी कथामें इतना परिवर्तन क्यों किया गया । हमारी समझमें इसका कारण भद्रवाहुका और श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय है। भावसंग्रहके कर्त्ताने भद्रवाहुको केवल निमित्तज्ञानी लिखा है, पर रत्ननन्दि उन्हें पंचम श्रुतकेवली लिखते हैं। दिगम्बर ग्रन्थोंके अनुसार भद्रवाहु श्रुतकेवलीका शरीरान्त वीरनिर्वाणसंवत् १६२ में हुआ है और स्वेताम्बरोंकी उत्पत्ति वीर नि० सं०६०३ (विक्रमसंवत् १३६) में हुई है। दोनोंके वीचमें कोई साढ़े चारसौ वर्षका अन्तर है। रत्ननन्दिजीको इसे

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