Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 58
________________ NA दर्शनसार ५७ wwwwwwww un सच्छाइ विरइयाई नियणिय पासंड गहियंसरिसाई । चक्खाणिऊण लोए, पवत्तियो तारिसायरणे ॥ ७० ॥ णिग्गंथं दूसित्ता, णिदित्ता अप्पणं पसंसित्ता । जीवे मूढयलोए, कयमाय (2) गेहियं वहुं दव्वं ॥ ७१ ॥ इयरो विंतर देवो, संती लग्गो उवद्दवं काउं । जंपइ मा मिच्छत्तं, गच्छह लहिऊण जिणधम्मं ॥ ७२ ॥ भीएहि तस्स पूआ, अठ्ठविहा सयलद्व्वसंपुण्णा । जा जिणचंदे रइया, सा अज्जवि दिण्णिया तस्स ॥ ७३ ॥ अज्जवि सा वलिपूया, पढमयरं दिति तस्स णामेण । सो कुलदेवो उत्तो, सेवढसंघस्स पुज्जो सो ॥ ७४ ॥ इय उप्पत्ती कहिया, सेवडयाणं च मग्गभद्वाणं । एच्चो उट्टं वोच्छं, णिसुणह अण्णाणमिच्छतं ॥ ७५ ॥ अर्थ - विक्रमराजाकी मृत्युके १३६ वर्ष बाद सोरठ देशकी वल्लभी नगरीमें श्वेताम्बर संघ उत्पन्न हुआ । ५२ । ( उसकी कथा इस प्रकार है ) उज्जयनी नगरीमें भद्रवाहु नामके आचार्य थे । वे निमित्त ज्ञानके जाननेवाले थे, इस लिए उन्होंने संघको बुलाकर कहा कि एक बड़ा भारी वारह वर्षोंमें समाप्त होनेवाला दुर्भिक्ष होगा । इस लिए सबको अपने अपने संघके साथ और और देशोंको चल जाना चाहिए । ५३-५४ | यह सुनकर समस्त गणधर अपने अपने संघको लेकर वहाँसे उन उन देशोंकी ओर विहार कर गये, जहाँ - सुभिक्ष था । ५५ । उनमें एक शान्ति नामके आचार्य भी थे, जो अपने अनेक शिष्योंके सहित चलकर सोरठ देशकी वल्लमी नगरीमें पहुँचे । ५६ । परन्तु उनके पहुँचनेके कुछ ही समय बाद वहॉपर भी ast भारी अकाल पड़ गया। मुखमरे लोग दूसरोंका पेट फाड़ फाड़कर और उनका खाया हुआ भात निकाल निकाल कर खा जाने लगे । ५७ । इस निमित्तको पाकर - दुर्भिक्षकी परिस्थितिके कारण - सबने कम्बल, 1 12

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