Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 57
________________ परिशिष्ट । एक पुण संति णामो, संपत्तो वलहि णाम णयरीए । बहुसीस संपउत्तो, विसए सोरहए रम्मे ॥५६॥ तत्थ विगयस्स जायं, दुभिक्खं दारुणं महाघोरं । जत्थ वियारिय उयरं, खद्धो रंकेहि कुरुत्ति ॥५७॥ तं लहिऊण णिमित्तं, गहियं सव्वेहिं कंबलीदंडं । दुद्धिय पत्तं च तहा, पावरण सेयवत्थं च ॥ ५८॥ चत्तं रिसिआयरणं, गहिया भिक्खाय दीणवित्तीए। उवविसिय जाइऊणं, भुत्तं वसहीसु इच्छाए ॥ ५९ ॥ एवं चटुंताणं कित्तिय कालम्मि चावि परियलिए। संजायं सुभिक्खं, जंपइ ता संति आइरिओ ॥६०॥ आवाहिऊण संघ, भणियं छंडेह कुत्थियायरणं। प्रिंदिय गरहिय गिण्हह, पुण रविचरियं मुर्णिदाणं ॥१॥ तं वयणं सोऊणं उत्तं सीसेण तत्थ पढमेण। को सक्कइ धारे, एयं अब दुद्धरायरणं ॥१२॥ उववासो य अलाभो, अण्णे दुसहाइ अंतरायाई । एकाठाणमचेलं, अज्जायण वंभचेरं च ॥६२॥ भूमीसयणं लोचो वे वे मासहिं असहिणिज्जो हु। वावीस परिसहाई असहिणिज्जाई णिचंपि॥ ६४॥ जं पुण संपइ गहियं, एयं अम्हहि किंपि आयरणं । इह लोयसुक्खयरणं, ण छडिमोहु दुस्समे काले ॥६५॥ ता संतिणा पउत्तं, चरियपभहोहिं जीवियं लोए। एयं ण हुसुंदरयं, दूसणयं जइणमग्गस्स ॥६६॥ णिग्गंथं पन्वयणं,जिणवरणाहेण अक्खियं परमं । तं छंडिऊण अण्णं, पवत्तमाणेण मिच्छत्तं ॥३७॥ तां रूसिऊण पहओ, सीसे सीसेण दीहदंडेण । थविरो घाएण मुओ, जाओ सो वितरो देवो ॥६८॥ इयरो संघाहिवई, पयडिय पासंड सेवडो जाओ। अक्खइ लोए धम्म, सग्गंथे अस्थि णिवाणं ॥६९॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68