Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

View full book text
Previous | Next

Page 50
________________ www दर्शनसार Cop ४९ विवेचनाका परिशिष्ट | पिछले पृष्ठोंके मुद्रित हो चुकनेके बाद इस ग्रन्थंके सम्बन्धमें हमें और भी कुछ बातें ऐसी मालूम हुई हैं, जिनका प्रकाशित कर देना उचित जान पड़ता है । १ इस ग्रन्थकी तेईसवी गाथामें 'णिञ्चणिगोयं पत्ता ' आदि वाक्यसे यह प्रकट किया गया है कि मस्करिपूरण नामका साधु नित्यनिगोदको प्राप्त हुआ। तीनों प्रतियोंका पाठ इस विषयमें विलकुल एक सा है । परन्तु वास्तवमें यह कथन सिद्धान्तविरुद्ध है | नित्यनिगोद उस पर्यायका नाम है, जिसे छोड़कर किसी जीवने अनादिकालसे कभी कोई दूसरी पर्याय न पाई हो, अर्थात् जो व्यवहारराशि पर कभी चढ़ा ही न हो। इस लिए जो जीव नित्य- निगोदसे निकलकरं मनुष्यादि पर्याय धारण कर लेते हैं वे ' इतर निगोद' में जाते है, नित्यनिगोदमें नहीं जा सकते। ऐसी दशामें मस्करीका नित्यनिगोदमें जाना सर्वथा असंभव है । जान पड़ता है, मस्करीको महान पापी बतलानेकी धुनमें ग्रन्थकर्ता इस सिद्धान्तका खयाल ही नहीं रख सके । २ तत्त्वार्थराजवार्तिक अध्याय ८, सूत्र १, वार्तिक २८ में एकान्त, विपरीत, संशय, वैनयिक और आज्ञानिक ये पॉच मिथ्यात्व बतलाकर विपरीत मतका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है - ' सग्रन्थो निर्मन्थः केवली कवलाहारी स्त्री सिद्ध्यतीत्येवमादिर्विपर्ययः ।' अर्थात् सग्रन्थ साधुओंको निर्ग्रन्थ, केवलीको कवलाहार और स्त्रीको मुक्ति इत्यादि बातें मानना विपरीत मत है । और संशय मतका स्वरूप. यह है - ' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः किं स्याझ नवेति मतिद्वैतं संशयः ।' अर्थात् सम्यग्दर्शन- ज्ञान - चारित्रकी एकता જ

Loading...

Page Navigation
1 ... 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68