Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 37
________________ दर्शनसार । सबके कष्टोंका अन्त हो जाता है। ज्ञानी और पण्डित कर्मके हाथसे छुटकारा नहीं पा सकते । जन्मकी गतिसे सुख और दुःखका परिवर्तन होता है। उनमें ह्रास और वृद्धि होती है। सिंहलीभाषाके बौद्ध ग्रन्थोंके अनुसार इन दोनोंके अस्सी अस्सी हजार शिष्य थे । मखलि गोशालके मतका नाम " आजीवक' था । इस आजीवक मतका उल्लेख अशोकके शिलालेखोंमें भी है । उपर्युक्त उल्लेखोंसे मस्करि और पूरण ये दो जुदे जुदे मतप्रवर्तक ही मालूम होते हैं । मालूम नहीं, दर्शनसारके कर्त्ताने इन दोनोंको एक क्यों मान लिया । इनके जो सिद्धान्त बतलाये हैं उनका भी मेल बौद्धादि ग्रन्थोंसे नहीं खाता है । अनेक जन्मोंका धारण करना ये दोनों ही मतवाले मानते है; परन्तु दर्शनसारमें इनका सिद्धान्त बतलाया है-पुनरागमनं भ्रमणं भवे भवे नास्ति जीवस्य। १६ आगे २४ वीं गाथासे ४३ वीं तक द्राविड, यापनीय, काठासंघ और माथुरसंघ इन चार संघोंकी उत्पत्ति बतलाई है। . चारोंकी उत्पत्तिका समय इस प्रकार दिया है: द्राविड संघ .... .. .. ५२६ विक्रममृत्युसंवत् । । यापनीय संघ... ... ७०५ " " । काष्ठासंघ ... ... . ७५३ " " माथुर संघ ... ... ... ९५३ , " अब यह देखना है कि उक्त समय कहातक ठीक हैं । सबसे पहले यह निश्चय करना चाहिए कि यह संवत् कौनसा है। बहुतोंका खयाल है कि वर्तमानमें जो विक्रम संवत् प्रचलित है, वह विक्रमके जन्मसे या राज्याभिषेकसे शुरू हुआ है; परन्तु हमारी समझमें यह मृत्युका ही सवत् है । इसके लिए एक प्रमाण लीजिए। सुभाषित-रत्नस-- दोहकी प्रशस्तिम अमितगतिने लिखा है:

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