Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 32
________________ दर्शनसार । प्रवर्तक था। इसके सिवाय यदि गोम्मटसारकी 'इंदो विय संसडयो' आदि गाथाका अर्थ वही माना जाय, जो टीकाकारोंने किया है, तो श्वेताम्बर सम्प्रदायका प्रवर्तक 'इन्द्र' नामके आचार्यको समझना चाहिए । भद्रबाहुचरित्रके की इन दोनोंको न बतलाकर रामल्य स्थलभद्रादिको इसका प्रवर्तक बतलाते हैं । उधर श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें दिगम्बर सम्प्रदायका प्रवर्तक 'सहस्रमल्ट ' अथवा किसीके मतसे 'शिवभूति' नामक साधु बतलाया गया है। पर दिगम्बर ग्रन्थों में न सहस्रमल्लका पता लगता है और न शिवभूतिका । क्या इसपरसे हम यह अनुमान नहीं कर सकते कि इन दोनों सम्प्रदायोंकी उत्पत्तिका मूल किसीको भी मालूम न था । सबने पीछेसे 'कुछ लिखना चाहिए' इसी लिए कुछ न कुछ लिख दिया है। १३ दिगम्बर और श्वेताम्बर ये दो भेद क्व हुए, इसका इतिहास बहुत ही गहरे अंधेरेमें छुपा हुआ है-इसका पता लगाना बहुत ही आवश्यक है । अभीतक इस विषय पर बहुत ही कम प्रकाश पड़ा है। ज्यों ही इसके भीतर प्रवेश किया जाता है, त्यों ही तरह तरहकी शंकायें आकर मार्ग रोक लेती है। हमारे एक मित्र कहते है कि जहाँसे दिगम्बर और श्वेताम्बर गुर्वावलीमें भेद पढता है, वास्तवमें वहींसे इन दोनों संघोंका जुदा जुदा होना मानना चाहिए। भगवानके निर्वाणके बाद गोतमस्वामी, सुधर्मास्वामी और जम्बूस्वामी बस इन्हीं तीन केवलज्ञानियोंतक दोनों सम्प्रदायोंकी एकता है । इसके आगे जो श्रुतकेवली हुए है, वे दिगम्बर सम्प्रदायमें दूसरे हैं और श्वेताम्बरमें दूसरे । आगे भद्रबाहुको अवश्य ही दोनों मानते हैं । अर्थात् जम्बूस्वामीके बाद ही दोनों जुदा जुदा हो गये है । यदि ऐसा न होता तो भद्रबाहुके शिष्यतक, अथवा आगे चलकर वि० संवत् १३६ तक दोनोंकी गुरुपरम्परा एकसी होती । पर एक सी नहीं है । अतएव ये

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