________________
दर्शनसार।
२९
भद्रवाहुका समय मिल जाता है। भद्रबाहुके समयमें जो १२ वर्षका दुर्भिक्ष पड़ा था, उसका उल्लेख मी श्वेताम्बर ग्रन्थोंमें है, जिसे दिगम्बर ग्रन्थोंमें श्वेताम्बर सम्प्रदायक होनेका एक मुख्य कारण माना है। अब यदि भद्रबाहुके शिष्य शान्त्याचार्य ओर उनके शिष्य जिनचन्द्र इन दोनोंके होनेमें ४० वर्ष मान लिये जायें तो दर्शनसारके अनुसार वीर नि० संवत् २०० (वि० सं० ६७०) में जिनचन्द्राचायने श्वेताम्बर सम्प्रदायकी स्थापना की, ऐसा मानना चाहिए । परन्तु नं० ११ की गाथा श्वेताम्बर सम्प्रदायकी उत्पत्तिका समय विक्रम संवत् १३६ बतलाया गया है । अर्थात् दोनोंमें कोई ४५० वर्षका अन्तर है। यदि यह कहा जाय कि ये भद्रवाहु पंचम श्रुतकेवली नहीं, किन्तु कोई दूसरे ही थे, तो भी बात नहीं बनती। क्योंकि भद्रवाहुचरित्र आदि ग्रन्थोंमें लिखा है कि भद्रबाहु श्रुतकेवली ही दक्षिणकी ओर गये थे और राजा चन्द्रगुप्त उन्हींके शिष्य थे। श्रवणबेलगुलके लेखोंमें भी इस वातका उल्लेख है । दुर्मिक्ष भी इन्हींके समयमें पड़ा था जिसके कारण मुनियोंके आचरणमें शिथिलता आई थी। अतएव भद्रबाहुके साथ विक्रम संवत् १३६ की संगति नहीं बैठती। भद्रवाहुचरित्रके का रत्ननन्दिने भद्रबाहुके और संवत् १३६ के बीचके अन्तरालको भर देनेके लिए श्वेताम्बरसम्प्रदायके 'अर्ध फालक' और 'श्वेताम्बर' इन दो भेदोंकी कल्पना की है, अर्थात् भद्रबाहुके समयमें तो 'अर्धफालक' या आधावस्त्र पहननेवाला सम्प्रदाय हुआ और फिर वही सम्प्रदाय कुछ समयके वाद वल्लमीपुरके राजा प्रजापालकी रानांके कहनेसे पूरा वस्त्र पहननेवाला श्वेताम्बर सम्प्रदाय बन गया। परन्तु इस कल्पनामें कोई तथ्य नहीं है। साफ मालूम होता है कि यह एक भद्दी गढ़त है।
१२ श्वेताम्बर सम्प्रदायके ग्रन्थोंमें शान्त्याचार्य के शिष्य जिनचन्द्रका कोई उल्लेख नहीं मिलता, जो कि दर्शनसारके कथानुसार इस सम्प्रदायका