Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 28
________________ दर्शनसार । एयंत बुद्धदरसी विवरीओ बंभ तावसो विणओ । इंदो वि य संसइओ मक्काडेओ चेव अण्णाणी ॥ इसमें बौद्धको एकान्तवादी, ब्रह्म या ब्राह्मणोंको विपरीतमति, तापसोंको वैनयिक, इन्द्रको सांशयिक, और मंखलि या मस्करीको अज्ञानी बतलाया है । टीकाकार लोग इन्द्रका अर्थ इन्द्र नामक श्वेताम्बराचार्य करते हैं, पर इसके ठीक होनेमें सन्देह है । आश्चर्य नहीं, जो गोम्मटसारके कर्ताका इस इन्द्रसे और ही किसी आचार्यका अभिप्राय हो जो किसी संशयरूप मतका प्रवर्तक हो । क्यों कि एक तो श्वेताम्बर सम्प्रदाय में इस नामका कोई आचार्य प्रसिद्ध नहीं है और दूसरे इस दर्शनसारमें भद्रबाहुके शिष्य शान्ताचार्यका शिष्य जिनचन्द्र नामका साधु श्वेताम्बरसम्प्रदायका प्रवर्तक बातलया गया है । २६ P ८ छडी और सातवी गाथासे मालूम होता है कि बुद्धकीर्ति मुनिने बौद्धधर्मकी स्थापना की । बुद्धकीर्ति शायद बुद्धदेवका ही नामान्तर है । इसने दीक्षासे भ्रष्ट होकर अपना नया मत चलाया, इसका अभिप्राय यह है कि यह पहले जैनसाधु था । बुद्धकीर्ति नाम जैनसाधुओं जैसा ही है । बुद्धकीर्तिको पिहितास्रव नामक साधुका शिष्य बतलाया है । स्वामी आत्मारामजीने लिखा है कि पिहितास्रव पार्श्वनाथकी शिष्य परम्परामें था । श्वेताम्बर ग्रन्थोंसे पता लगता है कि महावीर भगवानके समयमें पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्परा मौजूद थी । बौद्धधर्मकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें माथुरसंघके सुप्रसिद्ध आचार्य अमितगति लिखते है कि: रुष्टः श्रीवीरनाथस्य तपस्वी मौडिलायनः । शिष्य : श्रीपार्श्वनाथस्य विदधे बुद्धदर्शनम् ॥ ६ ॥ शुद्धोदनसुतं बुद्धं परमात्मानमब्रवीत् । अर्थात् पार्श्वनाथकी शिष्यपरम्परा में मौडिलायन नामका तपस्वी था । उसने महावीर भगवान्से रुष्ट होकर बुद्धदर्शनको चलाया और

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