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दर्शनसार ।
भूतत्रलिपुप्पदन्तौ दक्षिणदेशे तथोत्तरे धर्मम् । यं भाषेते मुनीन्द्रौ तत्तत्त्वं निर्विकल्पेन ॥ ४४ ॥
अर्थ -- भूतबलि और पुष्पदन्त इन दो मुनियोंने दक्षिण देशमें और उत्तरमें जो धर्म बतलाया, वही विना किसी विक्ल्पके तत्त्व है, अर्थात् धर्मका सच्चा स्वरूप है ।
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भिल्लकसंघकी उत्पत्ति |
दक्खिणसे विंझे पुक्कलए वीरचंदमुणिणाहो । अट्ठारसएतीदे भिल्लयसंघ परुवेदि ॥ ४५ ॥
दक्षिणदेशे विन्ध्ये पुष्करे वीरचन्द्रमुनिनाथ. । अष्टादशशतेऽतीते भिल्लकसंघ प्ररूपयति ॥ ४५ ॥ सोणियगच्छंकिच्चा पडिकमणंतहयभिण्णकिरियाओ वण्णाचारविवाई जिणमग्गं सुड्डु हिदि ॥ ४६ ॥ स निजगच्छं कृत्वा प्रतिक्रमणं तथा च भिन्नक्रियाः । वर्णाचारविवादी जिनमार्ग सुष्ठु निहनिष्यति ॥ ४६ ॥
अर्थ - दक्षिणदेशमें विन्ध्यपर्वतके समीप पुष्कर नामके ग्राममें वीरचन्द्र नामका मुनिपति विक्रमराजाकी मृत्युके १८०० वर्ष वीतने बाद भिल्लक संघको चलायगा । वह अपना एक जुदा गच्छ वनाकर जुदा ही प्रतिक्रमणविधि वनायगा, भिन्न क्रियाओंका उपदेश देगा. और वर्णाचारका विवाद खड़ा करेगा । इस तरह वह सच्चे जैनधर्मका नाश करेगा ।
१ श्रवणबेलगुलमें विंध्यगिरि और चन्द्रगिरि नामके दो पर्वत हैं। विन्ध्यमे अन्थकर्ताका अभिप्राय वहींके विन्ध्यपर्वत से है । दक्षिणमें और कोई विन्ध्यपर्वत नहीं है ।