Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 19
________________ दर्शनसार। णंदियडे वरगामे कुमारसेणो य सत्थविण्णाणी। कहो इंसणभट्टो जादो सल्लेहणाकाले ॥ ३९ ॥ नन्दितटे वरग्रामे कुमारसेनश्च शास्त्रविज्ञानी । काष्ठः दर्शनभ्रष्टो जातः सल्लेखनाकाले ॥ ३९ ॥ अर्थ-विक्रमराजाकी मृत्युके ७५३ वर्ष वाद नन्दीतट ग्राममें काष्ठासंघ हुआ । इस नन्दीतट ग्राममें कुमारसेन नामका शास्त्रज्ञ सल्लेखनाके समय दर्शनसे भ्रष्ट होकर काष्ठासंघी हुआ। माथुरसंघकी उत्पत्ति । तत्तो दुसएतीदे महुराए माहुराण गुरुणाहो। ___णामेण रामसेणो णिप्पिच्छं वणियं तेण ॥४०॥ ततो द्विशतेऽतीते मथुराया माथुराणां गुरुनाथः । नाम्ना रामसेनः निष्पिच्छि वर्णितं तेन ॥ ४० ॥ अर्थ-इसके २०० वर्ष वाद अर्थात् विक्रमकी मृत्युके ९५३ वर्ष बाद मथुरा नगरीमें माथुर संघका प्रधान गुरु रामसेन हुआ। उसने निःपिच्छिक रहनेका वर्णन किया। अर्थात् यह उपदेश दिया कि मुनियोंको न मारके पंखोंकी पिच्छी रखनेकी आवश्यकता है और न बालोंकी । उसने पिच्छीका सर्वथा ही निषेध कर दिया। सम्मत्तपयडिमिच्छतं कहियं जंजिणिंदविवेसु । अप्पपरणिट्ठिएसु य ममत्तबुद्धीए परिवसणं ॥४१॥ १' कुमारसेणो हि णाम पवइओ' यह पाठ ख-ग पुस्तकों में मिलता है। 'पन्चइमो' की छाया 'प्रवर्तक.' होती है।

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