Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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दर्शनसार ।
स्त्रीणां पुनदीक्षा क्षुल्लकलोकस्य वीरचर्यत्वम् ।
कर्कशकेशग्रहणं पष्ठं च गुणवतं नाम ॥ ३९ ॥ आयमसत्थपुराणं पायच्छित्तं च अण्णहा किंपि। विरइत्ता मिच्छत्तं पवट्टियं मूढलोएमु ॥३६॥
आगमशास्त्रपुराणं प्रायश्चित्तं च अन्यथा किमपि । विरच्य मिथ्यात्वं प्रवर्तितं मूढलोकेषु ॥ ३६ ॥ अर्थ--उसने स्त्रियोंको दीक्षा देनेका, क्षुल्लकोंको वीरचर्याका, मुनियोंको कड़े बालोंकी पिच्छी रखनेका, और ( रात्रिभोजनत्याग नामक ) छट्रे गुणवतका विधान किया। इसके सिवाय उसने अपने आगम, शास्त्र, पुराण और प्रायश्चित्त ग्रन्थोंको कुछ और ही प्रकार रचकर मूर्ख लोगोंमें मिथ्यात्वका प्रचार किया। सो समणसंघवज्जो कुमारसेणो हु समयमिच्छतो। चत्तोवसमो रुद्दो कई संघं परुवेदि ॥३७॥
स श्रमणसंघवय॑ कुमारसेनः खलु समयमिथ्यात्वी ।
त्यक्तोपशमो रुद्रः काष्ठासंघ प्ररूपयति ॥ ३७॥ अर्थ-इस तरह उस मुनिसंघसे बहिष्कृत, समयमिथ्यादृष्टी, उपशमको छोड़ देनेवाले और रौद्र परिणामवाले कुमारसेनने काष्ठासंघका प्ररूपण किया। सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । णंदियडे वरगामे कट्ठो संघो मुणेयवो ॥ ३८॥ ।
सप्तशते त्रिपञ्चाशति विक्रमराजस्य मरणप्राप्तस्य । नन्दितटे वरग्रामे काष्ठासंघो ज्ञातव्यः ॥ ३८॥

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