Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 16
________________ १४ दर्शनसार । mmmmmmmmmm xnxx rommmmmmmmmmrir n - mr. om mm कल्याणे वरनगरे सप्तशते पञ्चोत्तर जाते । यापनीयसंघमाव. श्रीकलगतः खलु सितपटतः ॥ २९ ॥ अर्थ-कल्याण नामके नगरमें विक्रम मृत्यु ७०५वर्ष बीतने पर (दूसरी प्रतिके अनुसार २०५ वर्ष बीतने पर ) श्रीकलशनाम स्वेताम्बर साधुसे यापनीय संघका सद्गाव हुआ। काष्ठासंघकी उत्पत्ति । सिरिवीरसेणसीसो जिणसेणो सयलसत्थविण्णाणी। सिरिपउमनंदिपच्छा चउसंघसमुद्धरणधीरो॥ ३०॥ श्रीवीरसेनशिप्यो जिनसेनः सकलशास्त्रविज्ञानी । श्रीपद्मनन्दिपश्चात् चतु:संवसमुद्धरणधीरः ॥ ३० ॥ अर्थ-श्रीवीरसेनके शिष्य जिनमेन स्वामी सकल गात्रोंके जाता हुए। श्रीपमनन्दि या कुन्दकुन्दाचार्यके बाद ये ही चारों संघोंके उद्धार करने में समर्थ हुए। तस्स य सिस्सो गुणवं गुणभद्दो दिव्वणाणपरिपुण्णो। पक्खुववासुद्धमदी महातवो भावलिंगो य ॥३१॥ • तस्य च शिष्यो गुणवान् गुणभद्रो दिव्यज्ञानपरिपूर्णः । पक्षोपवासः सृष्ठुमतिः महातपः भावलिङ्गश्च ॥ ३१ ॥ अर्थ-उनके शिष्य गुणमद्र हुए, जो गुणवान्, दिव्यज्ञानपरिपूर्ण, पक्षोपवासी, शुद्धमति, महातपस्वी और भावलिगके धारक थे। तेण पुणो विचमिच्चु णाऊण मुणिस्स विणयसेणस्या सिद्धृतं घोसित्ता सयं गयं सग्गलोयस्स ॥ ३२॥ '१ "तेणप्पणो वि मिच्नु' अर्थात् ' उन्होंने अपनी-भी मृत्यु जानकर इस प्रकारका भी पाठ स और ग प्रतियोंमें है।

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