Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 24
________________ दर्शनसार। अन्त-सिरिविमलसेणगणहरसिस्सो णामण देवसेणुत्ति । अवुहजणवोहणत्थं तेणेयं विरइयं सुत्तं ॥६७ ॥ इसके सिवाय इनके विषयमें और कुछ मालूम नहीं हुआ । इनका संघ सभवतः मूलसंघ ही होगा। क्योंकि अन्य सब संघोंको इन्होंने जैनाभास बतलाया है । इनका बनाया हुआ 'आराधनासार' नामका एक ग्रन्थ माणिकचन्द ग्रन्थमालामें छप गया है। 'तत्वसार' नामका एक और छोटासा ग्रन्थ है, जिसके छपानेका प्रवन्ध हो रहा है। इनके सिवाय ज्ञानसार, आदि और भी कई ग्रन्थ देवसेनके बतलाये जाते हैं; पर मालूम नहीं वे इन्हीं देवसेनके हैं, या अन्य क्सिीके । इनकी सत्र रचना प्राकृतमें ही है । इस ग्रन्थका सम्पादन इन्होंने विक्रम संवत ९०९ की माघ शुक्ला दशमीको किया है। उस समय ये धारानगरीके पार्श्वनाथके मन्दिरमें निवास करते थे। २ इस ग्रन्थकी पहली गाथा 'जह कहियं पल्वसूरीहिः (जैसा पूर्वाचार्योंने कहा है) पदसे और ४९ वी गाथाके 'पुवायरियक्याइ गाहाई संचिऊण एयत्थ । (पूर्वाचार्योंकी बनाई हुई गाथाओंको एक्त्र संचित करके बनाया) आदि पदसे मालूम होता है कि इस ग्रन्थकी अधिकांश गाथायें पहलेकी बनी हुई होंगी और वे अन्य ग्रन्योंसे ले ली गई होंगीं । खासकर मतोंकी उत्पत्ति आदिक सम्बन्धकी जो गाथायें हैं वे ऐसी ही जान पड़ती है। काष्ठासघकी उत्पत्तिके सम्बन्धकी जो गाथायें है उन्हें यदि ध्यानसे पढ़ा जाय तो मालूम होता है कि वे सिलासिलेवार नहीं हैं, उनमें पुनरुक्तियाँ बहुत है। अवश्य ही ते एकाधिक स्थानोंसे संग्रह की गई है। ३ ग्रन्थकतीने दर्शनोंकी उत्पत्तिके क्रम पर भी ध्यान नहीं रक्खा है । यदि समयके अनुसार यह कम रक्खा गया होता तो वैनायकोंकी उत्पत्ति बौद्वोंसे पहले, और मस्करीकी उत्पत्ति श्वेताम्बरोंसे पहले

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