Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay
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२०
दर्शनसार।
तत्तो ण कोवि भणिओ गुरुगणहरपुंगवेहि मिच्छत्तो। पंचमकालवसाणे सिच्छंताणं विणासो हि ॥४७॥
ततो न कोपि भणितो गुरुगणधरपुद्गवै मिथ्यात्वः । पञ्चमकालावसाने शिक्षकानां विनाशो हि ।। ४७ ॥ अर्थ-इसके बाद गणधर गरुने आर क्सिी मिथ्यात्वका या मतका वर्णन नहीं किया। पंचमकालके अन्तमें सच्चे शिक्षक मुनियांका नाश हो जायगा। एक्को वि य मूलगुणो वीरंगजणामओ जई होई। सो अप्पसुदो वि परं वीरोव्व जणं पवोहेइ ॥४८॥
एक अपि च मूलगुणः वीराङ्गजनामकः यतिः भविष्यति । स अल्पश्रुतोऽपि परं वीर इव जनं प्रबोधयिष्यति ॥ १८ ॥ अर्थ-केवल एक ही वीरागज नामका यति या साधु मूलगुणोंका धारी होगा, जो अल्पश्रुत (शास्त्रोंका थोड़ा ज्ञान रखनेवाला) होकर भी वीर भगवानके समान लोगोंको उपदेश देगा।
ग्रन्थकर्ताका अन्तिम वक्तव्य । पुवायरियकयाई गाहाइं संचिऊण एयत्थ । सिरिदेवसणगाणिणा धाराए संवसंतेण ॥ ४९ ॥ रइओ दसणसारो हारो भव्वाण णवसए गवए। सिरि पासणाहगेहे सुविसुद्धे माहसुद्धदसमीए॥५०॥
पूर्वाचार्यकृता गाथा. संचयित्वा एकत्र । श्रीदेवसेनगणिना धाराया संवसता ॥ ४९ ॥

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