Book Title: Darshansara
Author(s): Nathuram Premi
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 10
________________ दर्शनसार। अर्थ-श्रीभद्रबाहुगणिके शिष्य शान्ति नामके आचार्य थे । उनका 'जिनचन्द्र नामका एक शिथिलाचारी और दुष्ट शिष्य था। तेण कियं मयमेयं इत्थीणं अत्थि तब्भवे मोक्सो। केवलणाणीण पुणो अदक्खाणं तहा रोओ ॥१३॥ तेन कृतं मतमेतत् स्त्रीणा अस्ति तद्भवे मोक्षः। केवलज्ञानिनां पुनः अद्दक्खाणं (१) तथा रोगः ॥ १३ ॥ अर्थ-उसने यह मत चलाया कि स्त्रियोंको उसी भवमें स्त्रीपर्यायहीसे मोक्ष प्राप्त हो सकता है और केवलज्ञानी भोजन करते हैं तथा उन्हें रोग भी होता है। अंबरसहिओ वि जई सिज्झइ वीरस्स गम्भचारत्तं । पर लिंगे वि य मुत्ती फासुयभोजं च सव्वत्थ ॥१४॥ __ अम्बरसहितः अपि यतिः सिद्धयति वीरस्य गर्भचारत्वम् । परलिङ्गेपि च मुक्तिः प्राशुकभोज्यं च सर्वत्र ॥ १४ ॥ अर्थ-वस्त्र धारण करनेवाला भी मुनि मोक्ष प्राप्त करता है, महावीर भगवानके गर्भका संचार हुआ था, अर्थात् वे पहले ब्राह्मणीके गर्नमें आये, पीछे क्षत्रियाणीके गर्भमें चले गये, जैनमुद्राके अतिरिक्त अन्य मुद्राओं या वेषोंसे भी मुक्ति हो सकती है और प्राशुक भोजन सर्वत्र हर किसीके यहॉ कर लेना चाहिए। अण्णं च एवमाइ आगमदुहाई मित्थसत्थाई। विरइत्ता अप्पाणं परिठवियं पढमए णरए ॥१५॥ अन्यं च एवमादिः आगमदुष्टानि मिथ्याशास्त्राणि । विरच्य आत्मानं परिस्थापित प्रथमे नरके ॥ १५ ॥

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