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१५ श्रीमद्विजयानंद सूरि कृत, परगासे । तारप्रन्ना तिहां कौन गणंदा ॥ श्री श्रेण ॥३॥ ऐरावण सरिसोगज बडी। लंबकरण मन चाह करंदा । जिन बोडी मन अवर देवता ॥ मूढमति मन नाव धरंदा। श्री श्रे॥४॥ को त्रिशूली चक्री फुन कोई। जामनी के संग नाच करंदा। शांत रूप तुम मूरति नीकी। देखत मुफ तन मन हुलसंदा।श्री। श्रेण ॥५॥ चार अवस्था तुम तन सोने । बाल तरुण मुनि मोक्ष सोहंदा ।मोद हर्ष तन ध्यान प्रदाता ॥ मूढमति नहीं नेद लहंदा । श्री श्रेण ॥६॥ आतम ज्ञान राज जिन पायो ॥ दूर नयो निरधन पुख धंदा ॥ समता सागर के विसरामी। पायोअनुनवज्ञान अमंदा॥श्रीश्रे॥७॥
इति श्री श्रेयांस जिन स्तवनम् ॥ ११ ॥ अथ श्रीवासुपूज्य जिन स्तवन ।
अमल की चाल । . वासुपूज्य जिनराज आज मुफतारीयै।