Book Title: Chanakya Sutrani
Author(s): Ramavatar Vidyabhaskar
Publisher: Swadhyaya Mandal Pardi

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Page 23
________________ चाणक्यसूत्राणि इन सूत्रोंका प्रत्येक शब्द चाणक्य के हृदयस्थ जिस गम्भीर भावसागरका वहन कर रहा है, हमें इस व्याख्यामें उनके हृदय की उस राजनीतिविशा. रद ध्वनिको अपने पाठकोंतक पहुंचा देनेके कर्तग्यसे विवश होकर कहीं कहीं भ्रान्तिशून्य विकल्पहीन पत्याज्य तीन भाषाके प्रयोगके द्वारा देशके मभिमत असत्योंपर कषाघात करके विश्वकल्याणकारी सत्यको प्रकाश में लान:पडा है। इस कर्तव्यमयी विवश स्थितिमें इस भाष्य के इस कषाघातके समाजके यथार्थ हितकी भोरसे भीख मीचकर बैठे हुए कुछ लोगोंको कटु तथा दाहक प्रतीत होनेकी पूरी सम्भावना है। हम इसके लिये अपने पाठकोसे विनयपूर्वक लेखनीके प्रेरक भावों को समझने की प्रार्थना करते हैं। परन्तु साथ ही यह विश्वास हमारी लेखनीका वर्णनातीत सहारा भी बना हुला है कि हमारी भाषाको समाजसेवक सधी पाठकोंके मार्मिक भावोंको ध्यक्त करनेवाली चाणक्य हृदयकी प्रतिध्वनि होने का गौरव प्राप्त है । इस. लिये इसके देशभक्त भारतीय समाजके लिये श्रवणमधुर हृदयग्राही तथा अनुमोदनीय होने में लेशमात्र भी सन्देह नहीं है। अन्तमें हम निम्न दो लोकोक्तियों के साथ अपना प्रास्ताविक समाप्त करते हैं पुरुषाः सुलभा राजन् सततं प्रियवादिनः । प्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः ॥१॥ ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवक्षा जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः ॥ उत्पत्स्यते तु मम कोऽपि समानधर्मा कालो ह्ययं निरवधिविपुला च पृथ्वी ॥ २ ॥ राजन् सदा मुखपर मीठी बात बनानेवाले पुरुष तो सर्वत्र मिल जाते हैं परन्तु अप्रिय पथ्यको कहनेवाले और सुननेवाले दोनों ही दुर्लभ होते हैं। जो लोग हमारी इस रचनाको अवज्ञाकी दृष्टिसे देखते हैं उनका दृष्टिकोण दसरा है। उनके लिए यह ग्रन्ध नहीं रचा जा रहा है। यह ग्रन्थ उनके लिये रचा गया है जो संसारमें हमारे जसे विचारोंको लेकर जन्म ले रहे

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