Book Title: Bhuvaneshvari Mahastotram
Author(s): Jinvijay, Gopalnarayan Bahura
Publisher: Rajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
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कुछ संदिग्ध प्रतीत हुए, अतः अन्य प्रतियों का अन्वेषण आवश्यक हुआ। परन्तु वे सहज ही कहीं उपलब्ध नहीं हुई । प्रतिष्ठान में हस्तलिखित ग्रन्थों के जो इतरसंग्रहालयों के सूचीपत्र उपलब्ध थे उन में देखने पर भी ऐसी सभाष्य प्रति का उल्लेख नहीं मिला। अन्ततो गत्वा यथोपलब्ध सामग्री पर संतोष कर प्रकाशन का निश्चय करना पड़ा। तभी एक अप्रत्याशित उपलब्धि ने मुझे सूचित कर दिया कि यह प्रकाशन भगवती भुवनेश्वरी को अभीष्ट है और दो प्रतियाँ मुझे प्राप्त हो गई । इन में से एक प्रति मेरे सुहृत् पण्डित गंगाधरजी द्विवेदी, साहित्याचार्य और दूसरी स्वर्गीय ज्योतिर्वित् पण्डित केदारनाथजी (काव्यमाला-सम्पादक ) के संग्रह से प्राप्त हुई। ये दोनों ही प्रतियाँ यद्यपि आदर्शप्रति से अर्वाचीन हैं परन्तु अधिक शुद्ध और प्रामाणिक हैं। प्रथम प्रति पण्डित गंगाधरजी के प्रपितामह श्रीसरयूप्रसादजी द्विवेदी (ख० महामहोपाध्याय पं० दुर्गाप्रसादजी द्विवेदी के पिता) द्वारा लेखित एवं दूसरी प्रति स्वयं केदारनाथजी के हस्ताक्षरों में लिखित है। इन दोनों प्रतियों का उल्लेख प्रस्तुत पुस्तक में ख. और. ग. प्रति के रूप में किया गया है।
जब सम्पादित प्रति प्रेस में दे दी गई और मूल पुस्तक का मुद्रण समाप्त होने को आया तव स्तोत्र के ४३,४४ये पद्यों पर विचार करते हुए मुझे ध्यान आया कि यदि भुवनेश्वरी की पञ्चांगपद्धति भी इसके साथ लगा दी जाए तो इसकी उपादेयता बढ़ जाएगी, क्योंकि पूजा और पाठ दोनों शब्दों का नित्यसम्बन्ध है और इनसे सम्बन्धित क्रियाएं भारतीय जीवनपद्धति के मनोरम पक्ष हैं।
पञ्चांग में पटल, कवच, पूजापद्धति, सहस्त्रनाम और स्तोत्र सम्मिलित हैं । पटल देवता का गात्र, पद्धति शिर, कवच नेत्र, मुख सहस्त्रार (सहस्रनाम) और स्तोत्र देवी की रसना है।' __ यथा वृक्ष में मूल से शिखापर्यन्त एक ही रस व्याप्त रहता है, परन्तु पत्र, शाखा और पुष्पादि नानारूपों में व्यक्त होता है, उसी प्रकार विश्व में एक ही शक्ति नाना वस्तुओं के रूप में प्रकट होती है उसी को महाशक्ति कहते हैं । हम जिन वस्तुओं को देखते हैं और जो हमारे चारों ओर फैली हुई हैं वे सब ही इसी सर्वोच्च शक्ति के विभिन्न रूप हैं । जन्म, विकास और विनाश ये सब उसी महाशक्ति के प्रत्यक्ष विलास हैं । एकमात्र सर्वोच्च सत्ता ने अनेक रूपों में अपने को विभक्त करने की इच्छा की और ऐसा ही किया भी। ये विभक्त वस्तुएं मूल में एक होने के कारण पुनः एक होने
१. क. पटलं देवतागात्रं पद्धतिर्देवताशिरः ।
कवचं देवतानेत्रे सहस्रारं मुखं स्मृतम् । स्तोत्रं देवीरसा प्रोक्ता पञ्चांगमिदसीरितम् । प्राचाम् । ख. पूर्वजन्मानुशमनादपमृत्युनिवारणात् ।
सम्पूर्णफलदानाच्च पूजेति कथिता प्रिये ॥ कुलार्णवतन्त्रे १७ उल्लासे ॥