Book Title: Bhagwati Sutra Part 08
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 631
________________ प्रमेयचन्द्रिकाटीका श०९३०३३४०१४ जमालेमिथ्याभिमाननिरूपणम् ६१३ वासिनः शिष्याः श्रमणा निम्रन्थाः छद्मस्थाः, ये खलु प्रभवः समर्थाः सन्ति एतत् व्याकरणं पूर्वोक्तप्रश्नवयं व्याकर्तुम् उत्तरितुम् , यथा खलु अहम् एतन् प्रश्नद्वयं व्याकर्तुं समर्थोऽस्मि, तथैव मम शिष्या अपि श्रमणा निम्रन्था उपर्युक्तप्रश्नद्वयं व्यावतुं समर्थाः सन्ति, इति भावः, किन्तु ' णो चेव णं एयप्पगारं भासं भासित्तए जहा णं तुसं' यथा खल्ल त्वं पूर्वोक्तां भाषां भाषसे-" अहं खलु उत्पन्नज्ञानदर्शनधरः गहन् जिनः केवली भूत्वा केवलिविहारेण विहरामि” इति, नो चैव खलु तथा मम शिष्याः श्रमणा निर्ग्रन्था एतस्प्रकारां भाषां भाषितुं समर्था भवन्ति-यद् " वयम् उत्पन्नज्ञानदर्शनधरा अर्हन्तो जिनाः केवलिनो भूत्वा के वलिविहारेण विहरामः" इति, । भगवान् अनेकान्तबादमाश्रित्य पूर्वोक्तपश्नद्वयस्य स्वयमेवोत्तरमाह- सासए लोए जमाली ! जं जो कयाविणासी, णो कयाविण भवइ, ण कयाविण भविरसइ ' हे जमाले ! शाश्वतः सर्वदा स्थायी अयं लोकः, यः खलु नो कदापि न आसीत् , अनादित्वात् न कदाजे णं पसू एयं वागरणं वागरित्तए-जहा अहं' हे जनाले ! मेरे अनेक अन्तेवासी अमण निर्गन्ध छमस्थ हैं-वे इस प्रश्नको जिस तरहसे में समाधान कर सकता हूं उस तरह से समाधान कर सकते हैं, कित ‘णो चेष णं एयपगारं भासं भासित्तए-जहो णं तुमं' वे तुम्हारी जैसी इस भाषाका कि मै उत्पन्न ज्ञानदर्शनवाला अहत जिन केवली होकर केवलि विहारसे विचरण करता हूं" नहीं बोलते हैं। __अब भगवान् अनेकान्तवादका सहारा लेकर इन दोनों प्रश्नोंका उत्तर 'सासए लोए जमाली! ज णो कयावि णाली, णो कथावि ण भव. ण कयाविण अविस्सह" इस सूत्रपाठ द्वारा देते हुए कहते हैंजमाले! यह लोकशाश्वत है अर्थात् सर्वदा स्थाधी है क्योंकि अनादि होने से "यह पहिले नहीं था ऐसा नहीं है-सदा होने से यह पहिले भी નિર્ચ થ શિષ્ય છાસ્થ છે. તેઓ પણ મારી જેમ આ પ્રશ્નોનું સમાધાન ४२वाने समर्थ छे. ५२न्तु " णो चेव ण एयप्पगार' भास भासित्तए-जहा ण तुम" तो तमा२॥ यी मा भाषा " अत्पन्न ज्ञानहशनधारी मत જિન કેવલી હોવાથી કેવલિ વિહારથી વિચરણ કરું છું ” બોલતા નથી. હવે મહાવીર પ્રભુ અનેકાન્તવાદને આશ્રય લઈને તે બે પ્રશ્નના જે ઉત્તર પે છે તે સૂત્રકાર પ્રકટ કરે છે "सासए लोए जमाली! जं जो कयावि णासी, णो कयाविण-वड णो कयाविण भविस्मइ” उ माती ! An as शाश्वत छे सटी है मस्तित्व सह! २३वानुं १ छ. “ ५७i तेनु मस्तित न तु," मेवु .

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