Book Title: Bhagwati Sutra Part 08
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 635
________________ प्रमेयन्द्रिका टीका श०९उ०३३सू० १४ जमालेमिथ्याभिमाननिरूपणम् ...६१७ 'तए णं से जमाली अणगारे समणस्स भगवो महावीरस्स एवमाइक्खमाणस्स मात्र एवं परूवेमाणस एयमढे णो सहहह, णो पत्तिएइ, णो रोएइ ततः खले स जमालिरनगारः श्रमस्य भगवतो महावीरस्य एवम् उपर्युक्तरीत्या लोंका; जीवश्च कथञ्चित् शाश्वता, कथंचित अशाश्वतश्चे" त्यादिकम् आचक्षाणस्य यावत् एवं पूर्वोक्तरीत्या भापमाणस्य प्रज्ञापयतः प्ररूपयतच एतमर्थ-नो श्रद्वधाति, नो प्रत्येति तत्रार्थेन विससिति, नो रोचयति तदर्थ रुचिविषयं न करोति, 'एयमी असदहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोयमाणे दोचंपि समणस्स, भगवओ महावीरस्स अंतियाओ आयाए अवक्कमइ' एतमर्थ पूर्वोक्तार्थम् अश्रद्दधत श्रद्धा. विषयमकुर्वन् , अपतियन् , तत्रार्थे, विश्वासमकुर्वन् , आरोचयन् तत्र रुचिमकुअशाश्वत हैं। 'तएणं से जमाली अणगारे समणस्प्त भगवओ महा. वीरस्स एवमाइक्वमाणस्स जाव एवं पख्वेमाणस्स एयम8 णो संघहइ, णो पत्तिएइ, णो रोएइ' श्रमण भगवान महावीरने जब इस प्रकारसे लोक एवं जीवके विषय में कथन किया, अर्थात् लोक एवं जीव किसी अपेक्षा शाश्वत भी हैं, और किसी अपेक्षा अशाश्वत भी हैं, ऐसा कहाँ यावत् इस विषय पर भाषण किया, प्रज्ञापना की एवं प्ररूपणा कीतय भी जमालिने प्रभु कथित इस अर्थको श्रद्धासे नहीं देखा, उसे अपनी प्रतीति कोटिमें नहीं लिया, न अपनी रुचिका उसे विषयही पनायो-प्रत्युत 'एयम; असदहमाणे, अपत्तियमाणे, आरोयमाणे दोच्चपि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ आयाए अवक्षमह अपनी आदतसे लाचार बनकर उसने उस अर्थ पर अश्रद्धा रखी, अमतीतिही रखी और अपनी मचिसे भी उसे बाहर रखा, इस तरह "तएणं से जमाली अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स एवमाइ. कस्खमाणस्स जाव एवं परूवेम णस्स एयमझुणो सदहइ, णो पत्तिपइ, णो रोपद" જ્યારે શ્રમણ ભગવાન મહાવીરે લેક અને જીવને અમુક અપેક્ષાએ શાશ્વત અને અમુકે અપેક્ષાએ અશાશ્વત કહ્યા, વિશેષ કથન દ્વારા એ વાતનું સમથન કર્યું, દૃષ્ટાન્ત દ્વારા એ વાતને પ્રજ્ઞાપિત કરી અને પ્રરૂપિત કરી, ત્યારે જમાલીને મહાવીર પ્રભુના તે મન્તવ્ય પ્રત્યે શ્રદ્ધા ઉત્પન્ન ન થઈ, તેને તેની પ્રતીતિ ન થઈ અને તે મન્તવ્ય તેને રૂમ્યું પણ નહીં ___“ एयम, -असदहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोयमाणे दोच्चपि समणस्त भगवओ महावीरस्स अतियाओ आयाए अवक्कमइ” पातानी माहत मा લાચાર બનીને તેણે મહાવીર પ્રભુના તે કથન પ્રત્યે અશ્રદ્ધા જ રાખી, તેના પ્રત્યે અપ્રતીતિ જ રાખી અને તેના પ્રત્યે પોતાની અરુચિ જ બતાવી. આ પ્રકારની પરિસ્થિતિને અધીન બનીને તે ફરીથી પણ શ્રમણ ભગવાન મહા म०-७४

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