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भगवान महावीर और उनका समय प्रायः तीस वर्षकी अवस्था हो जाने पर महावीर संसार-देहभोगोंसे पूर्णतया विरक्त होगये, उन्हें अपने आत्मोत्कर्षको साधने
और अपना अन्तिम ध्येय प्राप्त करनेकी ही नहीं किन्तु संसारके जीवोंको सन्मार्गमें लगाने अथवा उनकी सच्ची सेवा बजानेकी एक विशेष लगन लगी-दीन दुखियोंकी पुकार उनके हृदय में घर कर गई-और इसलिये उन्होंने, अब और अधिक समय तक गृहवासको उचित न समझ कर, जंगलका रास्ता लिया, संपूर्ण राज्यवैभवको ठुकरा दिया और इन्द्रिय-सुखोंसे मुख मोड़कर मंगसिरवदि १०मी को 'ज्ञातखंड' नामक वनमें जिनदीक्षा धारण करली । दीक्षाके समय आपने संपूर्ण परिग्रहका त्याग करके आकिंचन्य (अपरिग्रह ) व्रत ग्रहण किया, अपने शरीर परसे वस्त्राभूषणोंको उतार कर फेंक दिया है और केशोंको क्लेशसमान समझते हुए उनका भी लौंच कर डाला । अब आप देहसे भी निर्ममत्व होकर नग्न रहते थे, सिंहकी तरह निर्भय होकर जंगल-पहाड़ोंमें विचरते थे और दिन रात तपश्चरण ही तपश्चरण किया करते थे।
विशेष सिद्धि और विशेष लोकसेवाके लिये विशेष ही तपश्चरण की जरूरत होती है-तपश्चरण ही रोम रोममें रमे हुए आन्तरिक मलको छाँट कर आत्माको शुद्ध, साफ़, समर्थ और कार्यक्षम बनाता है । इसी लिये महावीरको बारह वर्ष तक घोर तपश्चरण करना पड़ा-खब कड़ा योग साधना पड़ा-तब कहीं जाकर आपकी शक्तियोंका पूर्ण विकास हुआ। इस दुर्द्धर तपश्चरणकी
* कुछ श्वेताम्बरीय ग्रन्थों में इतना विशेष कथन पाया जाता है और वह संभवतः साम्प्रदायिक जान पड़ता है कि, वस्त्राभूषणोंको उतार डालनेके बाद इन्दने 'देवष्य' नामका एक बहुमूल्य वस्त्र भगवान्के कन्धे पर डाल दिया था, जो १३ महीने तक पड़ा रहा । वादको महावीरने उसे भी त्याग दिया और वे पूर्ण रूपसे नग्नदिगम्बर अथवा जिनकल्पी ही रहे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com