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महावीरका समय पणमासेसु गदेसु संजादो सगणिो अहवा' ॥
शकका यह समय ही शक-संवत्की प्रवृत्तिका काल है, और इसका समर्थन एक परातन श्लोकमे भी होता है, जिसे श्वेताम्बराचार्य श्रीमेरुतुंगने अपना 'विचारश्रेणि' में निम्न प्रकारसे उद्धत किया है:
श्रीवीरनिवृतेः षड्भिः पंचोत्तरैः शनैः ।
शाकसंवत्सरस्यैषा प्रवृत्तिर्भरतेऽभवत् ॥ इसमें, स्थूलरूपसे वर्षों की ही गणना करत हुए, माफ लिखा है कि 'महावीरके निर्वाणसे ६०५ वर्ष बाद इस भारतवषमें शकसंवत्सरकी प्रवृत्ति हुई।'
श्रीवीरसेनाचार्य-प्रणीत 'धवल' नामके सिद्धान्त-भाष्यमेजिसे इस निबंधमें 'धवल सिद्धान्त' नामसे भा उल्लखत किया गया है-इस विषयका और भी ज्यादा समर्थन होता है; क्योंकि इस ग्रंथमें महावीरके निर्वाणके बाद केवलियों तथा श्रुतधर. आचार्योंकी परम्पराका उल्लेख करते हुए अंर उसका काल पारमाण ६८३ वर्ष बतलाते हुए यह स्पष्टरूपम निर्दिष्ट किया है कि इस ६८३ वर्षके काल मेंसे ७७ वर्ष ७ महीने घटा देने पर जो ६०५ वर्ष ५ महीनेका काल अवशिष्ट रहता है वही महावीरके निर्वाणदिवससे शककालकी श्रादि-शक संवत्की प्रवृत्ति-तकका मध्यवर्ती काल है अर्थात् महावीरके निर्वाणदिवसम ६०५ वर्ष ५ महीनेके बाद शकसंवत्का प्रारंभ हुआ है । साथ ही, इम मान्यताके लिये कारणका निर्देश करते हुए, एक प्राचीन गाथाके आधार पर यह भी प्रतिपादन किया है कि इम ६०५ वष ५ महीन
१ त्रिलोकपज्ञप्ति में शककाल का कुछ और भी उल्लेख पाया जाता है और इसीसे यहाँ 'अथवा' शब्दका प्रयोग किया गया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com