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३८ भगवान महावीर और उनका समय ज्ञान ढाईसौ वर्ष बाद उत्पन्न हुआ ? तीनोंमेंसे एक भी बात सत्य नहीं है । तब सत्य क्या है ? इसका उत्तर श्रीगणभद्राचार्यके निम्न वाक्यमें मिलता है :
पार्श्वेश-तीर्थ-सन्ताने पंचाशद्विशताब्दके । तदभ्यन्तरवायुहावीरोऽत्रमजातवान् ।। २७६ ।।
महापुराण, ७४वाँ पर्व । इसमें बतलाया है कि 'श्रीपार्श्वनाथ तीर्थकरसे ढाई सौ वर्षके बाद, इसी समयके भीतर अपनी आयुको लिये हुए, महावीर भगवान् हुए' अर्थात् पार्श्वनाथके निर्वाणसे महावीरका निर्वाण ढाई सौ वर्ष के बाद हुआ । इस वाक्यमें 'तदभ्यन्तरवायः' (इसी समयके भीतर अपनी आयुको लिये हुए) यह पद महावीरका विशेषण है । इस विशेषण-पदके निकाल देनेसे इस वाक्यकी जैसी स्थिति रहती है और जिस स्थितिमें आम तौर पर महावीरके समयका उल्लेख किया जाता है ठीक वही स्थिति त्रिलोकसारकी उक्त गाथा तथा हरिवंशपुराणादिकके उन शककालसचक पद्योंकी है। उनमें शकराजाके विशेषण रूपसे 'तदभ्यन्तरवायु' इस आशयका पद अध्याहृत है, जिसे अर्थका स्पष्टीकरण करते हुए ऊपरसे लगाना चाहिये । बहुत सी कालगणनाका यह विशेषण-पद अध्याहृत-रूपमें ही प्राण जान पड़ता है । और इसलिये जहाँ कोई बात स्पष्टतया अथवा प्रकरणसे इसके विरुद्ध न हो वहाँ ऐसे अवसरों पर इस पदका आशय जरूर लिया जाना चाहिये । अस्तु ।
: जब यह स्पष्ट हो जाता है कि वीरनिर्वाणसे ६०५वर्ष ५ महीने पर शकराजाके राज्यकालकी समाप्ति हुई और यह काल ही शक. संवत्को प्रवृत्तिका काल है-जैसा कि ऊपर जाहिर किया जा चुका है-तब यह स्वतः मानना पड़ता है कि विक्रमराजाका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com