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२१.
वीर-शासनको विशेषता और इस लिये जो परम ब्रह्मकी आराधना करना चाहता है उसे अहिंसाकी उपासना करनी चाहिये-राग-द्वेषकी निवृत्ति, दया, परोपकार अथवा लोकसेवाके कामोंमें लगना चाहिये । मनुष्यमें जब तक हिंसकवृत्ति बनी रहती है तब तक आत्मगणोंका घात होने के साथ साथ "पापाः सर्वत्र शंकिताः" की नीतिके अनुसार उसमें भयका या प्रतिहिंसाकी आशंकाका सद्भाव बना रहता है । जहाँ भयका सद्भाव वहाँ वीरत्वं नहीं-सम्यक्त्व नहीं *
और जहाँ वीरत्व नहीं-सम्यक्त्व नहीं वहाँ आत्मोद्धारका माम नहीं। अथवा यों कहिये कि भयमें संकोच होता है और संकोच विकासको रोकने वाला है। इस लिये आत्मोद्धार अथवा आत्मविकासके लिये अहिंसाकी बहुत बड़ी जरूरत है और वह वीरताका चिन्ह है-कायरताका नहीं । कायरताका आधार प्रायः भय होता है, इस लिये कायर मनन्य अहिंसा धर्मका पात्र नहींउसमें अहिंसा ठहर नहीं सकती । वह वीरोंके ही योग्य है और इसी लिये महावीरके धर्म में उसको प्रधान स्थान प्राप्त है । जो लोग अहिंसा पर कायरताका कलंक लगाते हैं उन्होंने वास्तवमें अहिंसाके रहस्यको समझा ही नहीं । वे अपनी निर्बलता और आत्म-विस्मृतिके कारण कषायोंसे अभिभत हुए कायरताको वीरता और आत्माके क्रोधादिक-रूप पतनको ही उसका उत्थान समझ बैठे हैं ! ऐसे लोगोंकी स्थिति, निःसन्देह बड़ी ही करुणाजनक है।
* इसीसे सम्यग्दृष्टिको सप्त प्रकारके भयोंसे रहित बतलाया है और भयको मिथ्यात्वका चिन्ह तथा स्वानुभवकी क्षतिका परिणम सूचित किया है। यथा:
"नापि स्पृष्टो सुरष्टियः रा सप्तभिर्भयैर्मनाक् ॥" "ततो भीत्याऽनुमयोऽस्ति मिथ्याभावो जिनागमाव।
सा च भीतिरवश्यं स्याहेतोः स्वानुभवक्षतेः ॥" . -पंचाध्यायी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com