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२४ भगवान महावीर और उनका समय जाने वाला मनुष्य भी इसे धारण करके इसी लोकमें अति उच्च बन सकता है के। इसको दृष्टि में कोई जाति गर्हिन नहीं--तिरस्कार किये जानेके योग्य नहीं- सर्वत्र गुणोंकी पज्यता है, वे ही कल्याणकारी हैं, और इसीसे इस धर्म में एक चांडालको भी तसे युक्त होने पर 'ब्राह्मण' तथा सम्यग्दर्शनसे युक्त होने पर 'देव' माना गया है । यह धर्म इन ब्राह्मणादिक जाति-भेदोंको तथा दूसरे चाण्डालादि विशेषांको वास्तविक ही नहीं मानता किन्तु वृत्ति अथवा आचारभेदके आधार पर कल्पित एवं परिवर्तनशील आनता है और यह स्वीकार करता है कि अपने योग्य गुणोंकी उत्पत्ति पर जाति उत्पन्न होती है और उनके नाश पर नष्ट हो जाती है । * यो लोके त्वा नतः सोऽतिहीनोऽप्यतिगुरुयंतः। वालोऽपि त्वा श्रितं नौति को नो नीतिपुरुः कुतः ॥ ८२ ॥
-जिनशतके, समन्तभद्रः । x “न जातिर्हिता काचिद् गुणाः कल्याणकारणं । व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवा ब्राह्मणं विदुः ॥ ११-२०३ ॥"
-पअचरिते, रविषेणः । “सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातंगदेहर्ज। देवा देवं विदुर्भस्मगूढांगारान्तजसम्" ॥ २८ ॥
-रत्नरण्डके, समन्तभद्रः । + "चातुर्वण्यं यथान्यच्च चाण्डालादिविशेषणं । सर्वमाचारभेदेन प्रसिद्धिं भुवने गतं" ॥ ११--२०५ ॥
-पनचरिते, रविषणः। "प्राचारमात्रभेदेन जातीनां भेदकल्पनं ।
न जातिरिणीयास्ति नियता कापि तात्विकी" ॥१७-२४॥ "गुणैः सम्पद्यते जातिर्गुणध्वंसैविपद्यते ।... ॥ ३२ ॥
धर्मपरीक्षायां, अमितगतिः।
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