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सर्वोदय तीर्थ इन जातियोंका प्राकृति श्रादिके भेदको लिये हुए कोई शाश्वत लक्षण भी गो-अश्वादि जातियोंकी तरह मनुष्य-शरीरमें नहीं पाया जाता, प्रत्यत इसके शूद्रादिके योगसे ब्राह्मणी आदिकमें गर्भाधानकी प्रवृत्ति देखी जाती है, जो वास्तविक जातिभेदके विरुद्ध है ।। इसी तरह जारजका भी कोई चिन्ह शरीरमें नहीं होता, जिससे उमकी कोई जुदी जाति कल्पित की जाय, और न महज़ व्यभिचारजात होनकी वजहसे ही कोई मनुष्य नीच कहा जा सकता है-नीचताका कारण इस धर्म में 'अनार्य आचरण' अथवा 'मलच्छाचार' माना गया है * । वस्तुतः सब मनुष्योंकी एक ही मनुष्य जाति इस धर्मको अभीष्ट है, जो 'मनष्यजाति' नामक नाम कर्मके उदयसे होती है, और इस दृष्टिसे सब मनुष्य समान हैं
आपसमें भाई भाई हैं और उन्हें इस धर्मके द्वारा अपने विकासका परा पग अधिकार प्राप्त है। इसके सिवाय, किसीके कुलमें कभी कोई दोष लगगया हो उसकी शुद्धिकी, और म्लच्छों तककी + “वर्णाकत्यादिभेदानां देहऽस्मिन च दर्शनात् ।
बाबण्यादिषु शायर्गर्भावानप्रवर्तनात् ॥ नास्तिजाति तो भेदो मनुष्याणां गवाऽश्ववत् । भाकृतिग्रहणातस्मादन्यथा परिकल्पते ॥
-महापुराणे, गुणभद्रः । * चिन्हानि विटजातस्य सन्ति नांगेषु कानिचित् । अनार्यमाचरन् किंचिजायते नीचगोचरः॥
-पअचरिते, रविषेणः । * मनुष्यजातिरेकैव जातिकमोदयोद्भवा।। वृत्तिभेदा हि तभेदाचातुविध्यमिहाश्नुते ॥ ३८-४५ ।।
-आदिपुराणे, जिनसेनः। "विपक्षत्रियविट्शदाः प्रोक्ताः क्रियाविशेतः । जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्व बान्धव.पमाः॥
-धर्मरमिके, संमिसेनोद्धृतः।
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