Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 471
________________ गीतक छन्द १३६. फुन भंग पंचम आउखा नैं, पूर्व भाग विषे रही। उपशांत मोहादिक न लाधू, ते भणी बंध्यो नहीं। १३७. जे वर्तमान कालेज लाध, ते भणी बांधे सही । तिण अद्धा नै आगले समये, बांधस्य इरियावही ।। १३८. बांध्यो नहीं बांधे अछ, वलि बांधस्यै ए जाणिये । इम भंग पंचम तणो न्यायज, वृत्ति मांहि पिछाणियै ।। १३६,१३७. पञ्चमः पुनरायुषः पूर्वभागे उपशान्तमोह त्वादि न लब्धमिति न बद्धवान् अधुना तु लब्धमिति बध्नाति तद् अद्धाया एव चैष्यत्समयेषु पुनर्भन्त्स्यतीति (वृ०प० ३८६) सोरठा १३६. पूर्वे बांध्यो नाहिं, बांधै छै गुण ग्यारमें । बंधस्यै ग्यारम मांहि, उपशम-श्रेणे 'धर्मसी' । १४०. अथवा बांध्यो नांहि, बांधै बारसमें गणे । वलि बांधस्यै ताहि, बारम तेरम क्षपक ते ॥ गीतक छन्द १४१. नहिं बांधियो बांधे अछ, नहिं बांधस्य इक भव मही। ए भंग छट्ठो शून्य छै, इह रीत कोई ह नहीं । १४२. नहिं बांधियो बांधे अछै ए, दोय ऊपजता छता । नहिं बांधस्यै ए बोल तीजो, तिणज भव नहिं सर्वथा ॥ १४१. षष्ठस्तु नास्त्येव (वृ० प० ३८६) १४२. तत्र न बद्धवान् बध्नातीत्यनयोरुपपद्यमानत्वेऽपि न भन्त्स्यतीति इत्यस्यानुपपद्यमानत्वात्। (वृ०प० ३८७) १४३. तथाहि-आयुषः पूर्वभागे उपशान्तमोहत्वादि न लब्धमिति न बद्धवान् (वृ० ५० ३८७) १४४. तल्लाभसमये च बध्नाति ततोऽनन्तरसमयेषु च भन्त्स्यत्येव (वृ० प० ३८७) १४५. न तु न भन्त्स्यति, समयमात्रस्य बन्धस्यहाभावात् । (वृ० प० ३८७) १४३. तसु न्याय कहियै आउखा नैं, पूर्व भाग विषे रही । उपशांत-मोहादिक न लाधू, ते भणी बांध्यो नहीं । १४४. ते वीतराग धुर समय में, बांधे अछै इरियावही । तसु समय बीजै बांधस्य इज, वीतराग गुणे रही ।। १४५. पिण बांधस्यै नहिं इम न होवै, समय मात्र इरियावही । तसु बंधनोज अभाव छै, ते भणी बंध हुस्यै सही ।। वा०-न बांध्यो, बांधे, न बांधसी ए छठो भांगो शून्य छै, ते किम ? छठे भांगे कोइ एक जीव नहीं । ते छठा भांगा ने विष न बांध्यू, बांध छै—ए दोई उपजता थकां पिण 'न बांधस्य' ए तीजै बोल न ऊपज, ते देखाड़े छै-आउखा नां पूर्व भाग नै विषे उपशम-मोहत्वादि न लावू, एतला माटै न बांध्यू । ते लाभ समय नै विषे बांधस्यज पिण इम नहीं जे न बांधस्य, समय मात्र नां बंध नो इहां अभाव छै ते माट। १४६. जे ग्यारमें गणठाण में, इक समय रहि मरणे करी । सुर भवे इरियावहि न बंध, समय बंध इम उच्चरी॥ १४७. इम कहै तेहनों एह उत्तर, बे भवे ए आखियो । पिण ग्रहण आकर्षे भवे इक, भंग ए नहि भाखियो। १४६. यस्तु मोहोपशमनिर्ग्रन्थस्य समयानन्तरमरणेना पथिककर्मबन्धः समयमात्रो भवति नासौ षष्ठविकल्पहेतुः (वृ०प० ३८७) १४७. तदनन्तरर्यापथिककर्मबन्धाभावस्य भवान्तरवत्तित्वाद् ग्रहणाकर्षस्य चेह प्रक्रान्तत्वात् (वृ० प० ३८७) श०८, उ० ८, ढा० १५० ४५१ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582