Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 561
________________ सोरठा ५५. चरित आराधन सार तेहनों इज ए फल को इस को टीकाकार, ते थी चारित्र सहित ए ॥ ५६. अठ भव चरित्त प्रधान, श्रुत सम्यक्त्व देश व्रत नां । असंख्यात भव जान, एहवो आख्यो छै तिहां ॥ ५७. चरण आराधन रहीत, ज्ञान दर्शण आराधना | भव असंख पिण रीत, अष्टईज भव नहिं वृत्तौ ॥ ५८. 'चरम रात्रि गोशाल, सम्यक्त पायो शतक पनरमें हाल, लाखां भव तेहनां भगवती । कह्या ॥ ५६ सर्व थी थोड़ा ताहि, जीव चरित-आतम तणां । संख्याता अर्थ मांहि दशमुद्देश शत बारमें ॥ ६०. पंच चारित्र थी जाण, चरित्ताचरित्त को जुदो । ते मार्ट पहिचान, अधिक तास भव संभवै ॥ ६१.इत्यादिक वर न्याय, वली वृत्ति अवलोकतां । भव असंस जणाय, समदृष्टी श्रावक श्रावक तणां ॥' Jain Education International (ज० स० ) बा० – कोई पूछ – जघन्य चारित्र नों आराधना वालो कल्पातीत नैं विषे 01 ऊपजे के नहीं ? तेहनुं उत्तर सूत्रे करी कहै छै - पन्नवणा पद पन्द्रह में कह्योविजय विमाण न देवता अनागत का करिस्यै ? हम पूछयो जद भगवंत को करिस्यै, इम कह्यो । जो संख्याती में चार भव प्रथम देवलोक नां देवता सौधर्म देवलोके सुरप केतली इंद्रिय पांच, दस पन्द्रह तथा संख्याती इंद्रिय एक भव नीं पांच इंद्रिय लेखवं तो पिण नां अनें चार भव मनुष्य नां- एवं आठ एक भव विजय विमाण नों-नव, एक भव पूर्व भव मनुष्य मरी विजय विमाण में ऊपनों ते दस अने एक भव मनुष्य नों-ग्यारह । एवं ग्यारह भव तो थया अन संख्याती इंद्रिय कही तिण में अधिक भव लेखवं तो पन्द्रह भव तांइ री नां नहीं । अन इहां जघन्य चारित्र नीं आराधना वाला रा उत्कृष्ट पन्द्रह भव कह्या अ ममि चारित्र न आराधना वालो तीजो नर भव उल्लंघे नहीं, इम कह्या मार्ट तेहनां पांच भव हुई । पांच भव उपरंत वाला रै जघन्य चारित्र नीं आराधना संभवे । इण न्याय जघन्य चारित्र नो आराधना वालो पिण तप रूप अधिक करणी थकी विजय विमाण ऊपजतो दीस छ । ६२. * जघन्य चारित्र नीं आराधना पिण इम, केइक शिव भव तीजै ॥ सात आठ भव पुण न उलंघे, एम इहां पिण लीजे। *लय : रामजी नार गमाई हो ५५. यतश्चारित्राराधनाया एवेदं फलमुक्तम् ( वृ० १०४२० ) ५६. अनुभवा चरिते' त्ति सम्यमत्यदेशविरति भवास्त्वसंख्येया उक्ताः । ( वृ० प० ४२०) ५७. ततश्चरणाराधनारहिता ज्ञानदर्शनाराधना असंख्येयभविका अपि भवन्ति, न त्वष्टभविका एवेति । ( वृ० प० ४२० ) २. लए पं तस्य गोपालस्य मंचलितरस सततंसि परिणममासि पति-सम्मा अयमेवास्ये अज्झत्थिए जाव समुप्पज्जित्था । (भ० ज० १५१४१) --------.. ५६. एयासि णं भंते ! ....... गोयमा ! सव्वत्थोवाओ चरितायाओ.........। ( भ० श० १२/२०५ ) 'सव्वत्थोवाओ चरित्तायाओ' त्ति चारित्रिणां संख्यातत्वात् । (भग० ० ५० ५११) अतीवा वा० - विजय वैजयंत- जयंत अपराजियदेवस्स अनंता । बद्धेला पंच, पुरेक्खडा पंच वा दस वा पण्णरस वा संखेज्जा वा । ............. (पण्णवमा १२१३९) ६२. एवं चरिताराहणं पि (सं० पा० ) For Private & Personal Use Only (पा० टि० १) ० उ० १०५ डा० १६६ ५४१ www.jainelibrary.org

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