Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 500
________________ ४०. शिविका कूट आकार छ, आच्छादित जंपान । पुरुष प्रमाण जंपान ने, संदमाणी कहि जान ।। ४१. लोही ते मंडकादिक भणी, पचवा नों भाजन एह। वलि कडाहा लोह नां, वलि कुड़छा छै जेह ।। ४२. आसण शयन थंभा वलि, भंड माटी नों जन्य । अमत्र भाजन विशेष छ, उपकरण तेहथी अन्य ।। ४३. ए सहु नां देशे करि, देश नं बंध है ताय । देश-साहणणा बंध ते, ऊपजै छै इम आय ।। ४४. जघन्य अंतर्मुहर्त रहै, उत्कृष्ट काल संख्यात । देश-साहणणा बंध ए, भाख्यो श्री जगनाथ ।। ४५. सर्व-साहणणा बंध स्यू? क्षीर नीर आदि देह । सर्व-साहणणा-बंध कह्य, अल्लियावण-बंध एह॥ ४०. सीय-संदमाणी 'सीय' त्ति शिबिका-कूष्टाकारेणाच्छादितो जम्पानविशेष: 'संदमाणिय' त्ति पुरुषप्रमाणो जम्पानविशेषः । (वृ० प० ३६६) ४१. लोही-लोहकडाह-कच्छ्य 'लोहि' ति मण्डकादिपचनभाजनं 'लोहकडाहे' त्ति भाजनविशेष एव 'कडच्छुय' त्ति परिवेषणभाजनम् (वृ० प० ३६६) ४२,४३. आसण-सयण-खंभ-भंडमत्तोवगरणमादीणं देससा हणणाबंधे समुप्पज्जइ। 'भंड' ति मुन्मयभाजनं 'मत्त' त्ति अमत्रं भाजनविशेष: 'उवगरणत्ति' नानाप्रकारं तदन्योपकरणमिति । (वृ० प० ३६६) ४४. जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्ज कालं । सेत्तं देससाहणणाबंधे। (श० ८।३६१) ४५. से किं तं सव्वसाहणणाबंधे ? सव्वसाहणणाबंधे-से णं खीरोदगमाईणं । से तं सव्वसाहणणाबंधे । ... सेत्तं अल्लियावणबंधे । (श० ८।३६२) ४६. से किं तं सरीरबंधे? सरीरबंधे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-पुब्बपयोगपच्चइए य, पडुप्पन्नपयोगपच्चइए य। (श० ८।३६३) ४७. प्राक्कालासेवित: प्रयोगो-जीवव्यापारो वेदनाकषायादिसमुद्घातरूपः (वृ०प० ३६६) ४८. प्रत्यय:-कारणं यत्र शरीर बन्धे स तथा स एव पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः (वृ०प० ३६९) ४६. हिवै स्यू शरीर-बंध छै? जिन कहै दुविध अमोघ । पूर्व-प्रयोग-प्रत्यय कह्यो, प्रत्यय वर्तमान-प्रयोग । सोरठा ४७. आसेवित प्राक्काल, प्रयोग जीव व्यापारमय । वेदना कषाय न्हाल, आदि देई समद्घात जे ॥ ४८. प्रत्यय कारण तेह, जे शरीर-बंध में विषे । ते बंध भणी कहेह, पूर्व-प्रयोग-प्रत्यय ॥ ४६. बीखरिया प्रदेश, पाछो लेवो तेहनों। बंध रचना सुविशेष, बंध कहीजै जेहनें ॥ ५०. पूर्व काले जान, कदेइ जिण पाम्यो नथी। ते कहियै वर्तमान, प्रयोग-प्रत्यय जे विषे ।। ५१. ते शरीर नो बंध, बीखरिया प्रदेश नों। संहरवो फिर संध, समद्घात केवल विषे॥ ५२. प्रयोग तसु व्यापार, प्रत्यय कारण जे विषे। समय पंचमें सार, प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रत्यय ॥ ५३. *पूर्व-प्रयोग-प्रत्यय किसुं ?जिन कहै नेरइया आदि । संसार भव नै विषे रह्या, सर्व जीव नै लाधि । ५०-५२. प्रत्युत्पन्न:-अप्राप्तपूर्वो वर्तमान इत्यर्थः प्रयोग:-केवलिसमुद्घातलक्षणव्यापारः प्रत्ययो यत्र स तथा स एव प्रत्युत्पन्नप्रयोगप्रत्ययिकः । (वृ०प० ३६६) ५३. से किं तं पुन्वपयोगपच्चइए ? पुवपयोगपच्चइए-जण्णं नेरइयाणं संसारत्थाणं सव्वजीवाणं *लय : धिन भगवंत रो जी ज्ञान ४८० भगवती-जोड़ Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582