Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१०८. वाऊ वर्जी एम, तेऊ प्रमुख तणोज पिण।
कहिवं सगलो तेम, णवरं विशेष एतलं॥ १०६. सर्व-बंध नो सोय, उत्कृष्टो इम अंतरो।
निज-निज स्थिति अवलोय, समय अधिक सर्व स्थान जे॥ ११०. वर्जी वाऊकाय, ते माटै वाऊ तणो।
भेद जुदो कहिवाय, आगल कहियै छै हिवै।।
१०८. एवं वायुवर्जानां तेजः प्रभृतीनामपि, नवरम्
(वृ० ५० ४०२) १०६. उत्कृष्टं सर्वबन्धान्तरं स्वकीया स्वकीया स्थितिः
समयाधिका वाच्या। (वृ०प० ४०२) ११०. अथातिदेशे वायुकायिकवर्जानामित्यनेनातिदिष्ट
बन्धान्तरेभ्यो वायुबन्धान्तरस्य विलक्षणता सूचितेति
वायुबन्धान्तरं भेदेनाह- (वृ० प० ४०२) १११. वाउक्काइयाणं सव्वबंधंतरं जहण्णणं खुड्डागं भवग्ग
हणं तिसमयूणं, उक्कोसेणं तिणि वाससहस्साई
समयाहियाई। ११२. देसबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं।
(श० ८।३८१)
१११. *वाऊ सर्व-बंध अंतरो, जघन्य क्षल्लक भव हो ऊणा समया तीन।
उत्कृष्ट अंतर एतलो, तीन सहस्र वर्ष हो समय अधिक सुचीन ।।
११२. वाऊ देश-बंध अंतरो, जघन्य थकी ते हो कहिये समयो एक। उत्कृष्ट अंतर्मुहुर्त नों, वारू कहियै हो तेहनों न्याय विशेख ॥
सोरठा ११३. वाऊ तन औदार, देश-बंध कारक छतो।
वैक्रिय पाय तिवार, अंतर्महत रहि वलि ॥ ११४. औदारिक सर्व-बंध, द्वितीय समये देश-बंध ।
उत्कृष्ट अंतर संध, अंतर्मुहूर्त इह विधे ॥
११३. वायुरौदारिकशरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रियबन्धमन्तमहूर्त कृत्वा
(वृ० प० ४०२) ११४. पुनरोदारिकसवंबन्धसमयानन्तरमौदारिकदेशबन्धं यदा करोति तदा यथोक्तमन्तरं भवतीति ।
(वृ० ५० ४०२) ११५. पंचिंदियतिरिक्खजोणियओरालियपुच्छा।
श्री
११५. *पंचेंद्री तिर्यंच नों, औदारिक नों हो बंध-अंतर पूछत।
श्री जिन भाखै जूजुओ, सर्व-बंध न हो देश-बंध नुं विरतंत ॥ ११६. सर्व-बंध नों अंतरो, जवन्य क्षल्लक भव हो उणा समया तीन ।
उत्कृष्ट अंतर एतलो, पूर्व कोड़ी हो समय अधिक सुचोन ॥
११६. सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डाग भवग्गहणं तिसमयूणं,
उक्कोसेणं पुव्वकोडी समयाहिया ।
११७. तत्र सर्वबन्धान्तरं जघन्य भावितमेव
(वृ०प० ४०२) ११८. उत्कृष्टं तु भाव्यते
दूहा ११७. सर्व-बंध नुं अंतरो, जघन्य क्षल्लक भव जाण ।
तीन समय ऊणो तिको, पूर्ववत पहिछाण ।। ११८. तिरि पंचेंद्री सर्व-बंध, उत्कृष्ट अंतर तास ।
पूर्व कोड़ समयाधिक, तसु इम न्याय प्रकाश ।। ११९. पंचेंद्री तिर्यंच जे, अविग्रह उत्पन्न ।
सर्व-बंधकारक तदा, पहिले समय सुजन्न ॥ १२०. पाछै पूर्व कोड़ जे, समय ऊण रहि सोय।
विग्रह-गति त्रिण समय करि, तिरि पंचेंद्री होय ॥ १२१. दोय समय धुरला जिके, अनाहारक नां जाण ।
तीजा समय विषे थयो, सर्व-बंध पहिछाण ॥ १२२. अनाहारक नां बे समय, पूर्वे आख्या पेख ।
तेह मांहिलो समय इक, काढी नै सुविशेष ।।
११६. पञ्चेन्द्रियतिर्यङ् अविग्रहेणोत्पन्नः प्रथम एव च समये सबर्वन्धकः
(वृ० प० ४०२) १२०. ततः समयोनां पूर्वकोटि जीवित्वा विग्रहगत्या
त्रिसमयया तेष्वेवोत्पन्नः (वृ०प० ४०२) १२१. तत्र च द्वावनाहारकसमयौ तृतीये च समये सर्व
बन्धकः संपन्नः (व०प० ४०२,४०३) १२२. अनाहारकसमययोश्चैक: (वृ० प० ४०३)
*लय : वीर सुणो मोरी विनती ४६४ भगवती-जोड़
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