Book Title: Bhagavati Jod 02
Author(s): Tulsi Acharya, Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati
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५२. अन्तर्मुहुर्त काल, तेह मांहि थी समय त्रिण ।
___ दस सहस्र वर्ष में न्हाल, प्रक्षेप्यां पूरण हुवै ।। ..५३. अंतर्महत काल, तो पिण ते विगट नहीं ।
भेद असंख निहाल, अंतर्मुहूर्त नां अछै ।। ५४. उत्कृष्ट काल अनंत, रत्नप्रभा धुर समय में ।
सर्व-बंधको हंत, नीकल तिरि-पं० मनुष्य ह॥ ५५. वनस्पत्यादिक मांय, काल अनंत रही वलि ।
रत्नप्रभा में जाय, सर्व-बंधकारक हुवै ॥ ५६. *देश-बंध नुं अंतर तास, जघन्य अंतर्मुहूर्त विमास । उत्कृष्ट काल अनन्त निहालो, वनस्पती नों कालो॥
सोरठा ५७. रत्नप्रभा रै माय, देश-बंध करतो मरी।
तिरि-पंचेंद्री थाय, अंतर्महर्त्त आउखै ।। ५८. ते मरि नै उपजंत, रत्नप्रभा नारक विषे ।
द्वितीय समय में हंत देश-बंधकारक तदा ॥ ५६. जघन्य थकी इम जोय, देश-बंध न अंतरो । __अंतरर्मुहूर्त होय, उत्कृष्ट पूर्व भावना ॥
५२. अन्तर्मुहुर्तस्य मध्यात्समयत्रयस्य तत्र प्रक्षेपात्
(वृ० प० ४०८) ५३. न च तत्प्रक्षेपेऽप्यन्तर्मुहूर्तस्यान्तर्मुहूर्तत्वव्याघातस्तस्यानेक भेदत्वादिति
(वृ० प० ४०८) ५४, ५५. रत्नप्रभानारक उत्पत्ती सर्वबन्धकस्तत उद्धृत
श्चानन्तं कालं वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पद्यमानः सर्वबन्धक इत्येवमुत्कृष्टमन्तरमिति,
(वृ० प० ४०८) ५६. देसबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं
-वणस्सइकालो
५७. रत्नप्रभानारको देशबन्धकः सन् मृतोऽन्तर्महायुः
पञ्चेन्द्रियतिर्यक्तयोत्पद्य (बृ०प०४०८) ५८. मृत्वा रत्नप्रभानारकतयोत्पन्नः, तत्र च द्वितीयसमये देशबंधक:
(वृ० प० ४०८) ५६. इत्येवं जघन्यं देशबन्धान्त रमिति, “उक्कोसेण' मित्यादि, भावना प्रागुक्तानुसारेणेति।
(वृ० प० ४०८) ६०. एवं जाव अहेसत्तमाए, नवरं-जा जस्स ठिती
जहणिया
६०. *एवं यावत सातमी जोय, णवरं विशेष ए होय । सर्व नरक में विषे पहिछाणी, जेहनी जघन्य स्थिति
जिका जाणी॥ ६१. सर्व-बंध नों अंतर तास, कांइ जघन्य थकी सुविमास ।
अंतर्मुहर्त अधिको कहिवो, शेष थाकतो तिमहिज लहिवो ॥
६१. सा सव्वबंधंतरं जहण्णेण अंतोमुत्तमब्भहिया
कायव्वा, सेसं तं चेव।
६२. द्वितीयादिपृथिवीषु च जघन्या स्थितिः क्रमेणैकं त्रीणि सप्त दश सप्तदश द्वाविंशतिश्च सागरोपमाणीति ।
(वृ० ५० ४०८)
सोरठा ६२. सकरप्रभा थी जाण, एक तीन अरु सप्त दश ।
सतर बावीस पिछाण, सागर ए स्थिति जघन्य है। ६३. जघन्य स्थिति थी जोय, अंतरमहत अधिक ही।
सर्व-बंध नों होय, जघन्य थकी अंतर कह्यो। ६४. उत्कृष्टो इम न्हाल, सर्व-बंध नों अंतरो।
वनस्पती नों काल, असंखेज्ज पुद्गल परा॥ ६५. सकरप्रभा थी मन्य, देश-बंध नों अंतरो।
अंतर्महत जघन्य, उत्कृष्ट वनस्पति अद्धा॥ ६६. *पंचेंद्री-तिर्यंच मनुष्य नों पेख, वाउकाय जिम देख ।
जघन्य अंतर्मुहर्त अंतर हुंत, उत्कृष्ट काल अनंत ॥ *लय : समझू नर विरला ४१० भगवती-जोड़
६६. पंचिदियतिरिक्खजोणिय-मणुस्साण य जहा बाउ
क्काइयाणं
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